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________________ १२१ भुजगारबंधे अंतरकालाणुगमो अप्पद०-अवढि० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो, उक्क० पुव्वकोडितिभागं देसूणं० । तिरिक्खाउ० भुज०-अप्पद० जह० एग०, उक्क० पुवकोडी सादि । अवढि णाणा०भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उक्क० पुवकोडी सादि । वेउव्वियछकं मणुसगदितिगं ओघं । तिरिक्खगदितिगं णqसगभंगो । णवरि अवत्त० जह० अंतो०, उक० असंखेंजा लोगा। पंचिंदि०-समचदु०-पर-उस्सा०-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें. भुज०अप्पद०-अवट्टि ० णाणाभंगो । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडी० देसू० । भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है। तियश्चायुके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण है । अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण है। वैक्रियिकपटक और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है। तियश्चगतित्रिकका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर और आदेयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। विशेषार्थ यहाँ व आगे सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंका जो जघन्य अन्तरकाल कहा है वह सुगम है, क्योंकि उसका ओघप्ररूपणाके समय अलग-अलग स्पष्टीकरण कर आये हैं, अतः उसे वहाँ देखकर सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए। जहाँ कुछ वक्तव्य होगा,वहाँ उसका निर्देश करेंगे ही। मात्र सर्वत्र यथासम्भव पदोंके उत्कृष्ट अन्तरकालका स्पष्टीकरण करना आवश्यक समझ कर उसपर अवश्य ही विचार करेंगे । उसमें भी भुजगार और अल्पतरपदके विषयमें जहाँ विशेष वक्तव्य होगा, वहीं उसका निर्देश करेंगे । यहाँ तिर्यञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल होनेसे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल ओघके समान बन जानेसे वह ओघके समान कहा है । आगे अन्य जिन प्रकृतियोंके अवस्थितपदका अन्तरकाल के समान कहा है, वह भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए। स्त्यानगृद्धित्रिक आदिके भुजगार और अल्पतरपद उत्तम भोगभूमिके प्रारम्भमें हों, उसके बाद सम्यग्दृष्टि होकर इनका बन्ध न होनेसे मध्यमें न हों और अन्तमें मिथ्यादृष्टि होनेपर पुनः बन्ध होने लगनेसे पुनः हों,यह सम्भव है, इसलिए उक्त प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ आगे अन्य जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका यह अन्तरकाल कहा है,वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । ओघसे इन प्रकृतियोंके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है, वह यहाँ भी बन जाता है, क्योंकि तिर्यचकी कायस्थिति इन दोनों अन्तरकालोंसे बहुत अधिक बतलाई है, अतः किसी भी जीवके इतने कालतक तिर्यश्च पर्यायमें बने रहना सम्भव है। दो वेदनीय आदिके चारों पदोंका भङ्ग ओघके समान यहाँ भी घटित हो जाता है, इसलिए उसे १. ता०प्रतौ 'पुव्वकोडिति० सादि०' आ०प्रतौ 'पुव्वकोडितिभागं सादि०' इति पाठः । २ आ०प्रती 'पुवकोडितिभागं सादि' इति पाठः । ३ ता०प्रती 'लोगा। सम० पर०' इति पाठः। १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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