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________________ भुजगारबंधे कालाणुगमो १११ जह० उक्क० ग० । एवं याव अणाहारग त्ति णेदव्यं । णवरि ओरालियमि० देवगदिपंचगस्स भुज० जह० उक्क० अंतो०। दोआउ० ओघं । सेसाणं गदिभंगो। एवं वेउब्बियमि० । आहारमि० धुवियाणं भज० ज० उक्क० अंतो० । परियरमाणीणं भुज०अवत्त० ओघं। कम्मइ०-अणाहार० भुज० जह० एग०, उक्क०वेसम० । अवत्त. जह० उक्क० एग० । सुहुमसंप०-उवसमसम्मा० अवढि० जह० एग०, उक० सत्तसमयं । ___ एवं कालं समत्तं । उत्कृष्ट काल सबका एक समय है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिपश्चकके भुजगार पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग गतिके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में जानना चाहिए। आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के भुजगार पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। परावर्तमान प्रकृतियों के भुजगार और अवक्तव्य पदका काल ओघके समान है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में भुजगार पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात समय है । विशेषार्थ-योगके अनुसार भुजगार और अल्पतरपद एक समय तक भी हो सकते हैं और अन्तर्महर्त काल तक भी हो सकते हैं। यही कारण है कि यहाँ पर स इन दो पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अवस्थितदका जघन्य काल तो एक समय ही है, क्योंकि एक समयके लिए अवस्थितपद होकर दूसरे समयमें अन्य पद हो,यह सम्भव है। पर इसके उत्कृष्ट कालके विषयमें दो उपदेश पाये जाते है-प्रथम प्रवर्तमान उपदेशके अनुसार उत्कृष्ट कालका निर्देश और दूसरा अप्रवर्तमान उपदेशके अनुसार उत्कृष्ट कालका निर्देश । प्रथम उपदेशके अनुसार अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल ग्यारह समय बतलाया है और दूसरे उपदेशके अनुसार अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल पन्द्रह समय बतलाया है, इसलिए यहाँ सब प्रकृतियों के अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल ग्यारह या पन्द्रह समय कहा है। चारों आयुओं के तीनों पदों का यह काल इसी प्रकार है। मात्र अवस्थितपदका उत्कृट काल ग्यारह समय या पन्द्रह समय न प्राप्त होकर केवल सात समय ही प्राप्त होता है, इसलिए इनके तीनों पदों के कालका अलगसे निर्देश किया है। अब रहा सब प्रकृतियो के अवक्तव्यपदका काल सो यह पद बन्ध प्रारम्भ होनेके प्रथम समयमें होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अनाहारक तक जितनी मार्गणाएँ हैं, उनमें यह काल प्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जानने की सूचना की है। मात्र कुछ मार्गणाएँ इसकी अपवाद हैं, इसलिए उनमें अलगसे कालका विचार किया है। उनमेंसे पहली औदारिकमिश्रकाययोग मार्गणा है। इसमें सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त जीवो में देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जीवों के इनका नियमसे भुजगारबन्ध होता रहता है, इसलिए इस मार्गणामें उक्त पाँच प्रकृतियों के भुजगारपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । इस मार्गणामें दो आयुओं का भङ्ग ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है.। तथा इसमें शेष प्रकृतियों के चारों पदों का काल गति मार्गणा के अनुसार बन जाता है, इसलिए वह गतिके अनुसार जाननेकी सूचना की है। आहारकमिश्रकाययोगमें १ आ प्रतौ 'देवगदिपंचगस्स च जह' इति पाठः । २ ता०प्रती 'अणाहार० भुज० ए.' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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