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________________ ११० महाबंधे पदेसबंधाहियारे कालाणुगमो १४८. कालाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे०। ओघे० सव्वपगदीणं भुजगार०अप्पद० जह० एगसभयं, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवढि० जह• एग०, उक्क० पवाइज्जंतेण उवदेसेण ऍकारससमयं । अण्णण पुण उवदेसेण पण्णारससमयं । चदुण्णं आउगाणं भुज०अप्पद० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्टि० जह० एग०, उक्क० सत्तसम० । अवत्त. स्त्यानगृद्धित्रिक आदिके अवक्तव्यपदका स्वामी होता है, इतना विशेष जानना चाहिए । यद्यपि यह बात मूलमें नहीं कही गई है, फिर भी यह सम्भव है, इसलिए इसका अलगसे निर्देश किया है । सातावेदनीय आदि अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका बन्ध प्रारम्भ होने पर प्रथम समयमें अवक्तव्यपद और द्वितीयादि समयों में शेष तीन पद सम्भव हैं, यह स्पष्ट ही है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क चतुर्थ गुणस्थान तक ध्रुवबन्धिनी है। इस बीच कोई भी जीव इनके तीन पदों का स्वामी हो सकता है। आगेके गुणस्थानों में इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए संयम या संयमासंयमसे गिर कर जो प्रथम समयवर्ती मिथ्याइष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यस्मिथ्याणि या असंयतसम्यग्दृष्टि होता है, वह इनके अवक्तव्य पदका स्वामी होता है, यह कहा है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका संयमासंयम गुणस्थान तक बन्ध होता है, इसलिए यहाँ तक ये ध्रवबन्धवाली होनेसे इस बीच किसी भी जीवको इनके तीन पदों का स्वामी कहा है । मात्र इनका अवक्तव्य पद संयमसे गिरकर नीचेके गुणस्थानों को प्राप्त होनेवाले जीवके प्रथम समयमें होता है।यही देखकर संयमसे गिर कर मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत हुए प्रथम समयवर्ती जीवको इनके अवक्तव्यपदका स्वामी कहा है। चार आयुका अपने बन्धके योग्य सामग्रीके मिलने पर ही बन्ध होता है, इसलिए इनका बन्ध प्रारम्भ होने पर प्रथम समयमें इनका अवक्तव्य पद और द्वितीयादि समयों में शेष तीन पद कहे हैं। यह ओघ प्ररूपणा है । मूलमें कही गई मनुष्यत्रिक आदि मार्गणाओं में अपनी-अपनी वन्ध प्रकृतियों के अनुसार यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र मुलमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों के अवक्तव्य पदका स्वामी ऐसा जीव भी कहा है जो उपशमश्रेणिमें इन प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्तिके वाद मर कर प्रथम समयवर्ती देव होता है। पर स्वामित्वका यह विकल्प मनुष्यत्रिक आदि कुछ मार्गणाओं में घटित नहीं होता, अतः उनमें उसका निषेध किया है। इनके सिवा अनाहारक तक अन्य जितनी मार्गणाएँ हैं, उनमें उक्त व्यवस्थाको देखकर स्वामित्व साध लेना चाहिए । उक्त प्ररूपणा उन मार्गणाओंमें स्वामित्वके लिए साधनेके लिए बीजपद है। __ इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ। कालानुगम १४८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियों के भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रवर्तमान उपदेशके अनुसार ग्यारह समय है। परन्तु अन्य उपदेश के अनुसार पन्द्रह समय है। चार आयुओं के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात समय है। अवक्तव्यपदका जघन्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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