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भुजगारबंधे सामित्तं वा संजदासंजदस्स वा। चदुण्णं आउगाणं तिण्णि पदा कस्स० ! अण्णद० । अवत्त० कस्स० ! अण्ण० पढमसमयआउगबंधमाणयस्स । एवं ओघमंगो मणुस०३-पंचिंदि०तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालि०-आभिणि-सुद-ओधि० - मणपज्ज०-संजदचक्खुदं०-अचक्खुदं०-ओधिदं०--सुक्कले०-भवसि०-सम्मा०-खइग०-उवसम०-सण्णि०आहारग ति। णवरि मणुस०३-पंचमण-पंचवचि०-ओरालि०-संजद० अवत्तव्यं देवोत्ति ण भाणिदव्यं । एवं एदेण बीजेण याव अणाहारग त्ति णेदव्यं ।
एवं सामित्तं समत्तं'।
संयतासंयत होता है वह प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके अवक्तव्यपदका स्वामी है। चार आयुओंके तीन पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव चार आयुओंके तीन पदोंका स्वामी है । इनके अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? प्रथम समयमें आयुबन्धका प्रारम्भ करनेवाला अन्यतर जीव इनके अवक्तव्यपदका स्वामी है। इस प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेद्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञनी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहा जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी और संयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादिके प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका स्वामी देवको नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहरक मार्गणा तक लेजाना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ किस प्रकृतिके किस पदका कौन जीव स्वामी है इस बातका विचार किया गया है। प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियाँ अपनी अपनी बन्धव्युच्छित्तिके स्थानके पूर्व ध्रुवबन्धवाली हैं, इसलिए इस बीच कोई भी जीव इनके भुजगार आदि तीन पदोंमें से किसी भी पदका स्वामी हो सकता है, अतः इनके तीन पदोंका अन्यतर जीव स्वामी कहा है। पर इनका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणीसे गिरनेवाले या तो मनुष्यके होता है या मनुष्यिनीके होता है और यदि ऐसा मनुष्य या मनुष्यनी इनका पुनः बन्ध होनेके पूर्व मर कर देव हो जाता है तो वह भी प्रथम समयमें इनके अवक्तव्यपदका स्वामी होता है, इसलिए ऐसे जीवोंको इनके अवक्तव्यपदका स्वामी कहा है। दूसरे दण्डकमें कही गई स्त्यानगृद्धित्रिक आदि भी अपनी बन्धव्युच्छित्तिके पूर्वतक ध्रवबन्धिनी हैं, इसलिए इस बीच कोई भी जीव यथायोग्य योगके अनुसार इनके तीन पदोंका बन्ध कर सकता है, अतः इनके भी तीन पदोंका अन्यतर जीव स्वामी कहा है । पर इनमेंसे मिथ्यात्वके सिवा शेष प्रकृतियों का अवक्तव्यपद संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वसे गिर कर मिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यादृष्टि हुए जीवके प्रथम समयमें होता है और मिथ्योत्वका अवक्तव्यपद संयम, संयमासंयम, सम्यक्त्व और सासादनसम्यक्त्वसे गिर कर मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम समयमें होता है, क्योंकि अपनी अपनी व्युच्छित्तिके बाद ऊपरके गुणस्थानोंमें इनका बन्ध नहीं होता है । लौट कर पुनः बन्धयोग्य गुणस्थानोंके प्राप्त होने पर इनका बन्ध होने लगता है, इसलिए ऐसे जीवको इनके अवक्तव्यपदका स्वामी कहा है। यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वसे गिर कर जो प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि होता है वह भी
१. ता०प्रतौ ‘एवं समित्तं समत्तं' इति पाठो नास्ति ।
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