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________________ ११२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अंतराणुगमो १४६. अंतराणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-छदसणा०-चदुसंज०भय-दुगुं०-तेजाक०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप्पद बंधंतरं० जह. एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखे० । अवत्त० जह० अंतो०, उक० अद्धपोग्गल थीणगिद्वि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ भुज०-अप्पद० जह० एग०, उक० वेछावट्ठि० देसू० । अवढि० जह० एग०, उक्क० सेढीए असंखेज० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० अद्धपोग्गल०। सादासाद०-हस्स-रदि-अरदिसोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० भुज०-अप्पद०-अवट्टि० णाणावरणभंगो । अवत्त० एकान्तानुवृद्धि योग होता है, इसलिए इसमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों का एक भुजगारपद होनेसे उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा शेष प्रकृतियाँ परावर्तमान होती हैं। उनका जघन्य बन्धकाल एक समय है और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहां ओघके अनुसार इन प्रकृतियों के भुजगारबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल हा है। मात्र यहां भुजगारका जघन्य काल एक समय प्राप्त करनेके लिए दो समय तक इन प्रकृतियोंका बन्ध अवश्य कराना चाहिए, क्योंकि इन दो समयों में प्रथम समय अवक्तव्यका और दूसरा समय भुजगारका होनेसे भुजगारका जघन्य काल एक समय होगा। यहां सब परावर्तमान प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका ओघके अनुसार जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक मार्गणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । पर इनमें प्रथम समय अवक्तव्यका है, इसलिए यहां भुजगारका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। अवक्तव्यका उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। सूक्ष्मसाम्पराय आदि दो मार्गणाओं में मात्र अवस्थितपदके कालमें विशेषता है, इसलिए उसका अलगसे निर्देश किया है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। अन्तर १४६. अन्तरानुमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुरल परिवर्तनप्रमाण है। सोतावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशः १. ता.आष्प्रत्योः 'असंखेजगु० । अवत्त०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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