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________________ हY अप्पाबहुगपरूवणा प० विसे० । मणपज्ज० ज० प० विसे० । ओधिणा० ज०प० विसे० । सुदणा० ज० प० विसे० । आभिणि० ज० प० विसे० । ओधिदं० ज० ५०. विसे० । अचक्खुदं० ज० प० वि० । चक्खुदं० ज० प० विसे० । अण्णदरगोदे ज० ५० संखेंजगु० । अण्णदरवेदणी० ज० प० विसे । वेउवि० ज०प० असंखेंज्जगु० । देवगदि० ज०प० संखेज्जगु० । तिरिक्ख-मणुसाऊणं ज० प० असंखेज्जगु० । णिरयगदि० ज० प० असंखेज्जगु० । णिरय-देवाऊणं ज० प० संखेंजगु० । आहार० जह० पदे० असंखेंजगुणं । १२४. आदेसेण णिरयगदीए पोरइएसु . मूलोघं याव अण्णदरवेदणी० ज० प० विसे । तदो तिरिक्ख-मणुसाऊणं ज० प० असंखेज्जगु० । एवं छसु पुढवीसु । सत्तमाए मूलोघो याव कम्मइ० ज. प. विसे । तदो तिरिक्ख० ज० ५० संखेंजगु • । जस-अजस० ज० प० विसे । उवरि ओघो । णवरि याव चक्खुदं० ज० प० विसे० । णीचा० ज०प० संखेंजगु० । अण्णदरवेदणी० ज०प० विसे । मणुसग० ज० प० असंखेंजगु० । तिरिक्खाउ० ज० ५० संखेंजगु० । उच्चा ज. प. विसे । १२५. तिरिक्खेसु मूलोघो । णवरि आहार० णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्ख० । अधिक है । उससे परिभोगान्तरायका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वीर्यान्तरायका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका. जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अचक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाप विशेष अधिक है । उससे चक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर गोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिक शरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे देवगतिका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे नरकगतिका जघन्य प्रदेशाम असंख्यातगुणा है। उससे नरकायु और देवायुका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे आहारक शरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। १२४. आदेशसे नरकगतिकी अपेक्षा नारकियोंमें अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होने तक मूलोधके समान भङ्ग है। उससे आगे तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार प्रारम्भकी छह पृथिवियों में जानना चाहिए। सातवीं में कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है- इस स्थानके प्राप्त होने तक मूलोधके समान भङ्ग है । उससे आगे तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । उससे यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। आगे ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि यह अल्पबहुत्व चक्षुदर्शनावरणका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होने तक ओघके समान जानना चाहिए। उससे आगे नीच गोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे अन्यतर वेदनीयका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे तिर्यश्चायुका जघन्य प्रदेशाप्र संख्यातगुणा है । उससे उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। . १२५. तिर्यञ्चोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आहारकशरीर नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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