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________________ अप्पाबहुगपरूवणा भंगो याच रदि-अरदि० उ०प० विसे० । दाणंत० उ०प० विसे० । उवरिं माणक़साइभंगो या माणसंज० उ०प० विसे० । पुरिस० उ०प० विसे । मायासंज० उ० प० विसे० । देवाउ० उ०प० विसे० । उच्चा०-जस० उ० प० विसे० । लोभसं० उ०प० विसे० । अण्णदरवेदणी० उ०प० विसे० । ११६. परिहारे० सव्वत्थोवा केवलणा० उ० पदे । पयला० उ०प० विसे० । णिद्दा० उ० प० विसे । केवलदं उ०प० विसे । आहार० उ० प० अणंतगु० । वेउ० उ०प० विसे० । तेजा० उ. प. विसे० । कम्म० उ० प० विसे० । उवरि आहारकायजोगिभंगो । ११७. सुहुमसंप० सव्वत्थोवा केवलणा० उ० पदे० । केवलदं० उ० ५० विसे० । दाणंत० उ० प० अणंतगु० । लाभंत० उ०प० विसे० । भोगंत० उ० प० विसे० । परिभोगत० उ०प० विसे० । विरियंत० उ०प० विसे० । मणपज्जव० उ०प० विसे० । ओधिणा० उ०प० विसे० । सुद० उ० ५० विसे० । आभिणि० उ. प. विसे । ओधिदं उ०प० विसे० । अचक्खु० उ० प० विसे० । चक्खु० उ० छेदोपस्थापनासंयत जीवों में रति और अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होनेतक मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। आगे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आगे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक हैइस स्थानके प्राप्त होनेतक मानकपायवाले जीवोंके समान भङ्ग है। आगे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे देवायुका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे उच्चगोत्र और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अन्यतर वेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। ११६. परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें केवलज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तीक है। उससे प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । उससे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उसके आगे आहारककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। ११७. सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें केवलज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाय अनन्तगुणा है । उससे लाभान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे भोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे परिभोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशात विशेष अधिक है । उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे १. ता. प्रतौ 'मणपजवभंगो। याव' इति पाठः । २. ता० प्रतौ 'भंगो । याव' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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