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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे वि० । आभिणि-सुद-ओधि० अणुत्तरविमाणवासियदेवभंगो याव केवलदंसणावरणीयं० त्ति । तदो आहार० उ० अणंतगु०। ओरा० उ०प० विसे० । वेउ० उ० प० विसे० । तेजा० उ०प० विसे० । कम्म० उ० प० विसे० । मणुस० उ० प० संखेज्जगु० । देवगदि० उ०प० विसे० । अजस० उ०प० विसे० । दुगुं० उ० प० संखेंज्जगु० । भय० उ० प० विसे० । हस्स-सोगे० उ०प० विसे० । रदि-अरदि० उ०प० विसे० । दाणंत० उ०प० संखेज्जगु० । लाभंत० उ०प० विसे० । भोगंत० उ० ५० विसे० । परिभोगंत० उ० प. विसे० । विरियंत उ० प० विसे० । उवरि ओघं। णवरि णिरयाउगं तिरिक्खाउगं णीचा. णत्थि। ११५. मणपज्ज. सव्वत्थोवा केवलणा० उ० प० । पयला० उ० ५० विसे० । णिद्दा० उ०प० विसे । केवलदं० उ० प० विसे० । आहार० उ. प. अणंतगु० । वेउ० उ० प० विसे० । कम्म० उ० प० विसे० । देवगदि० उ०प० संखेंज्जगु० । अजस० उ० प० विसे० । दुगुं० उ० प० संखेज्जगु० । उवरि ओधिणाणिभंगो । णवरि मणुसाउ० णत्थि । एवं संजदा० । सामाई०-छेदो० मणपज्जव आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें केवलदर्शनावरणके अल्पबहुत्वके प्राप्त होनेतक अनुत्तरविमानवासी देवोंके समान भङ्ग है। उससे आगे आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। उससे औदारिक शरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। . उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अयशःकोर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे हास्य और शोकका उत्कृष्ट प्रदेशान विशेष अधिक है। उससे रति और अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे लाभान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे भोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे परिभोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आगेका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ नरकायु, तिर्यश्चायु और नीचगोत्रका बन्ध नहीं होता। ११५. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें केवलज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । उससे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे अयश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगणा है। उससे आगे अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायु नहीं है। इसी प्रकार संयत जीवोंमें जानना चाहिए। सामायिकसंयत और १. ता० प्रती एवं संजदा० सामा०' इति पाठः । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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