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________________ अप्पा बहुगपरूवणा ८६ उ०प०वि० । सुद० उ० वि० । आभिणि० उ० वि० । माणसं० उ० वि० । कोसं ० उ० वि० । मायसं० उ० वि० । लोभसं० उ० वि० । ओधिदं० उ० वि० । अचक्खुदं० उ० वि० । चक्खुदं० उ० वि० । पुरि० उ० वि० । अण्णदरआउ० उ० वि० । अण्णदरे गोदे जस० उ० वि० । अण्णदरे वेदणी० उ० वि० | माणसासु कोधकसाइभंगो याव आभिणि० उ० वि० । कोधसंज० उ० वि० । ओधिदं० उ० वि० । अचक्खु ० उ० वि० । चक्खु० उ० वि० । माणसंज० उ० विसे० । मायसंज० ० उ० विसे० । लोभसंज० उ० वि० । पुरि० उ० वि० । णवरि कोधकसाइभंगो । मायकसाइ० माणकसाइभंगो याव माणसंजल० उ० वि० । पुरि० उ० वि० । मायसंजल० उ० वि० । लोभमं० उ० वि० । अण्णदरे आउगे उ० विसे० । णवरि कोधकसाइभंगो | लोभे मूलोघं । 1 ११४. मदि- सुद- विभंग ० पंचि ० तिरि० पज्जत्तभंगो याव अण्णदरवेदणी० उ० अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे मान संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे लाभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशात विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशा विशेष अधिक है। उससे अन्यतर आयुका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर गोत्र और यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे अन्यतर वेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। मानकषायवाले जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है इस स्थानके प्राप्त होनेतक क्रोध कषायवाले जीवोंके समान भङ्ग है । आगे क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशा विशेष अधिक है। उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है । इतनी विशेषता है कि क्रोधकषायवाले जीवोंके समान भङ्ग है । मायाकषायवाले जीवोंमें मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है इस स्थान प्राप्त होने तक मानकषायवाले जीवोंके समान भङ्ग है। आगे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे अन्यतर आयुका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है । इतनी विशेषता है कि आगे क्रोधकषायवाले जीवोंके समान भङ्ग है । लोभकषायवाले जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । ११४. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभङ्गज्ञानी जीवोंमें अन्यतर वेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है इस स्थानके प्राप्त होनेतक पचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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