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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे विसे० । आभिणि० उ०प० विसे । ओधिदं० उ०प० विसे । अचक्खु० उ० प० विसे० । चक्खुदं०-पुरिस० उ०प० विसे० । अण्णदरे आउगे० उ०प० विसे० । अण्णदरगोदे जस० उ० प० विसे० । अण्णदरवेदणीए उ० प० विसे० । ११२. अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा केवलणा० उ० पदे० । केवलदं० उक्क० पदे० विसे । दाणंत० उ०प० अणंतगु० । सेसाणं यथासंखं उक० पदे० विसे । कोधसं० उ०प० विसे० । मणपज्ज० उ०प० विसे० । ओधिणा० उ० प० विसे०। सुद० उ. प. विसे० । आभिणि० उ० प० विसे० । माणसं० उ० ५० विसे० । ओधिदं० उ०प० विसे। अचक्खुदं० उ०प० विसे । चक्खुदं० उ० प० विसे । मायासं० उ०प० विसे० । लोभसं० उ० प० संखेज्जगु० । जस०-उच्चा० उक्क० ५० विसे० । सादा० उ०प० विसे । ११३. कोधकसाइंसु मूलोघं याव इत्थि० उ० प० विसे० । दाणंत० उ० प० विसे । लाभंत० उ०प० विसे० । भोगंत० उ०प० विसे० । परिभोगंत० उ० प० विसे । विरियंत० उ०प० विसे० । मणपज्ज० उ० प० विसे० । ओधिणा० प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आभिनियोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है । उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे चक्षुदर्शनावरण और पुरुपवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर आयुका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे अन्यतर गोत्र और यश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर वेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। - ११२. अपगतवेदवाले जीवोंमें केवलज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सवसे स्तोक है। उससे केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । शेष अन्तरायकी प्रकृतियोंका क्रमसे उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेप अधिक है। आगे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाम विशेष अधिक है। उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। ११३. क्रोधकषायवाले जीवोंमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके होने तक मूलोघके समान भङ्ग है। आगे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्न विशेष अधिक है। उससे लाभान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे भोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशान विशेष अधिक है । उससे परिभोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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