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________________ अप्पाबहुगपरूवणा तेजा० उ०प० विसे० । कम्म० उ० पदे० विसे० । देवग० उ० प० संखेंज्जगु० । जस०-अजस० उ० प० विसे । दुगुं० उ०प० संखेंज्जगु० । सेसाणं यथा अणुदिसदेवाणं । णवरि यम्हि मणुसाउ० तम्हि देवाउ० भणिदव्वं ११०. कम्मइयकायजोगीसु याव केवलदसणावरणीयं ताव मूलोघो । वेउ० उ० पदे० अणंतगु० । ओरा० उ०प० विसे । तेजा० उ०प० विसे० । कम्म० उ० प. विसे । देवगदि० उ०प० संखेज्जगु० । मणुस उ०प० विसे० । जस० उ० प० विसे० । तिरिक्ख० उ०प० विसे० । अजस० उ०प० विसे० । दुगुं० उ०प० संखेंजगु० । सेसाणं यथा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु तथा णेदव्वं ।। १११. इत्थि-पुरिस-णqसगेसु मूलोघं याव इथि०-णqस० उ० प० विसे० । माणसंज० उ०प० विसे० । कोधसंज० उ० प० विसे० । मायासंज० उ० ५० विसे । लोभसं० उ०प० विसे० । दाणंत० उ० प० विसे । लाभंत० उ०प० विसे । भोगंत० उ०प० विसे० । परिभोगंत० उ०प० विसे० । विरियंत० उ०प० विसे० । मणपज्ज० उ०प० विसे० । ओधिणा० उ० प० विसे० । सुद० उ० प० उससे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे यश कीर्ति और अयशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग जिस प्रकार अनुदिशके देवोंके बतलाया है,उस प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जहाँपर मनुष्यायु कही है,वहाँपर देवायु कहनी चाहिए। ११०. कार्मणकाययोगी जीवोंमें केवलदर्शनावरणीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक हैइस स्थानके प्राप्त होने तक मूलोषके समान भङ्ग है। आगे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्रं अनन्तगुणा है। उससे औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे यश-कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तिर्यश्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अयश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। शेष प्रकृतियोंका जिस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्व कहा है, उस प्रकार यहाँ जानना चाहिए। १११. स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले और नपुंसकवेदवाले जीवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होनेतक मूलोघके समान भङ्ग है। आगे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे लाभान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे भोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे परिभोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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