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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे प० विसे । ओधिणा० उ० प० विसे० । सुद० उ०प० विसे । आभिणि ० उ०प० विसे । ओधिदं० उ०प० विसे० । अचक्खु० उ०प० विसे । चक्खुदं० उक्क० प० विसे । मणुसाउ० उ० पदे० संखेज्जगु० । उच्चा० उक्क० पदे० विसे । सादासाद० उक० पदे० विसे० । १०८. ओरालियमि० ओघं याव केवलदसणावरणीय त्ति उ०प० विसे० । दो आउ० अणंतगु० । वेउवि० उ० प० असं०गु० । ओरा० उ. प. विसे । तेजाक० उ० प० विसे० । क० उ० पदे० विसे० । देवगदि उ० संखेज्जगु० । मणुस. उ. प. विसे० । जस० उ. प. विसे० । तिरिक्ख० उ०प० विसे० । अजस० उ० प० विसे० । दुगुं० उ० प० संखेंज्जगु० । भय० उ० प० विसे० । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। १०६. वेउब्वियका० देवोघं । एवं वेउव्वियमिस्सगे वि । णवरि आउ० णस्थि । आहार-आहारमि० सव्वत्थोवा केवलणा० उक्क० पदे० । पयला० उ०प० विसे० । णिद्दा० उ० प० विसे। केवलदं० उ०प० विसे । वेउवि० उ०प० अणंतगु० । विशेष अधिक है। उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाप विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे श्रुतज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मनुष्यायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे सातावेदनीय और असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। १०८. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें केवलदर्शनावरणीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है-इस स्थानके प्राप्त होनेतक ओघके समान भङ्ग है। आगे दो आयुओंका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । उससे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। उससे औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । उससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे यश:कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तिर्यश्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अयश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाप संख्यातगुणा है। उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेद्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। १०६. वैक्रियिककाययोगी जीवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मका बन्ध नहीं होता । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें केवलज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । उससे प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। १. आ० प्रतौ 'मणुसाणु० उ०' इति पाठः । २. आ० प्रतौ 'तेजाक० उ०प० विसे ० । देवगदि०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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