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________________ अप्पाबहुगपरूवणा पदे० विसे० । दुगुं० उक्क० पदे० संखेज्जगु० । सेसाणं णिरयभंगो। एवं भवणवाण-जोदिसि० सोधम्मीसाणेसु । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति णिरयभंगो । एवं चेव आणद याव णवगेवज्जा त्ति । णवरि विसेसो तिरिक्खगदिचदुण्णं कर । १०७. अणुदिस याव सम्वट्ठ ति सव्वत्थोवा अपचक्खाणमाणे० उक० पदे । कोघे० उक्क० पदे० विसे । माया० उक्क० पदे० विसे० । लोमे० उक्क० पदे. विसे । एवं पञ्चक्खाण०४ । केवलणा० उक्क० प० विसे० । पयला० उ०प० विसे० । णिद्दा० उ०प० विसे० । केवलदं० उ०प० विसे । ओरा० उ०प० अर्णतगु० । तेजा० उ०प० विसे | कम्म० उ. प. विसे । मणुस० उ०प० संखेज्जगु० । जस०-अजस० उ०प० विसे० । दुगुं० उक्क० पदे० संखेंज्जगु० । भय० उक्क० पदे० विसे । हस्स-सोगे० उक्क० पदे० विसे० । रदि-अरदि० उ० पदे० विसे । पुरिस० उक० पदे० विसे० । माणसंज० उक्क० पदे० विसे० । कोधसंज० उक्क० पदे० विसे० । मायासं० उक० पदे० विसे० । लोभसं० उ० प० विसे० । दाणंत० उ. प. विसे०। लाभंत. उ. प. विसे । भोगंत० उ० प० विसे० । परिभोगंत० उ०प०विसे । विरियंत उ०प०विसे० । मणपज्ज० उ० उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतिचतुष्कको छोड़कर अल्पबहुत्व कहना चाहिए । १०७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में अप्रत्याख्यानावरण मानका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।। उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। आगे केवलज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे केवलदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । उससे यश कीर्ति और अयशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे हास्य और शोकका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे रति और अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है । उससे लाभान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे भोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे परिभोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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