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________________ ८४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे वेउ० उक्क० पदे० अणंतगु० । ओरा० उक्क० पदे० विसे । तेजा० उक्क० पदे० विसे० । कम्म० उक० पदे. विसे । णिरयगदि-देवग० उक्क० पदे० संखेंज्जगु० । मणुस० उक० पदे० विसे० । जस० उक० पदे० विसे । तिरिक्व० उक्क० पदे० विसे० । अजस० उक्क० पदे० विसे । सेसाणं पगदीणं णिरयभंगो । एवं पंचिंदि०तिरिक्ख०३ । पंचिंदि०तिरिक्खअपज्जत्त० णिरयभंगो याव कम्मइयसरीर त्ति । मणुस० उक्क० पदे० संखेंजगु० । जस० उक्क० पदे० विसे० । तिरिक्ख० उक० पदे० विसे० । अजस० उक्क० पदे० विसे० । दुगुं० उक्क० संखेंज्जगु० । भय० उक० विसे० । हस्स-सोगे० उक्क० पदे० वि०। रदि-अरदि० उक्क० पदे० विसे० । अण्णदरवेदे० उक्क० पदे० विसे० । सेसाणं पगदीणं णिरयभंगो। एवं सचअपज्जत्तयाणं तसाणं थावराणं च सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं । णवरि मणुसाउ०-मणुस०मणुसाणु०- उच्चा० चत्तारि एदाणि तेउ०-वाऊणं वज्ज । १०६. मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि. मूलोघं । देवेसु णिरयभंगो याव कम्मइयसरीर त्ति । तदो मणुस. उक० पदे. संखेंजगु० । तिरिक्ख० उक्क० पदे० विसे० । जस०-अजस० दो वि तुल्ला उक० प्राप्त होने तक मूलोघके समान भङ्ग है । आगे वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। उससे औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है । उससे तैजसशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे कार्मणशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे नरकगति और देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । उससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेप अधिक है। उससे यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे तिर्यश्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अयश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका अल्पबहुत्व प्राप्त होने तक नारकियोंके समान भङ्ग है । आगे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अयशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे भयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे हास्य और शोकका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे रति और अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अन्यतर वेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तक, सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र इन चार प्रकृतियोंको छोड़कर अल्पबहुत्व कहना चाहिए। १०६. मनुष्यत्रिक, पञ्चेद्रियद्विक, सद्विक, पाँच मनायोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । देवाम कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व प्राप्त होनेतक नारकियोंके समान भङ्ग है । उसके आगे मनुप्यगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । उससे तिर्यश्वगतिका उत्कृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक है। उससे यशः. कीर्ति और अयश कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र दोनोंका परस्पर तुल्य होते हुए भी विशेष अधिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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