SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे रदि-अरदि० उक्क० पदे० विसे० । इत्थि०-णस० उक्क० पदे. विसे० । दाणंत० उक्क० पदे० संखेंगु० । लाभंत. उक० पदे० विसे० । भोगंत० उक्क० पदे० विसे० । परिभोगंत० उक्क० पदे० विसे० । विरियंत० उक्क० पदे० विसे० । कोधसंज. उक्क० पदे० विसे० । मणपज्ज० उक्क० पदे० विसे० । ओधिणा० उक्क० पदे० विसे । सुदणा० उक्क० पदे० विसे० । आभिणि० उक्क० पदे० विसे० । माणसंज० उक्क० पदे० विसे । ओधिदं० उक्क० पदे० विसे० । अचक्खु० उक० पदे० विसे । चक्खुदं० उ० विसे० । पुरिस०' उक्क० पदे० विसे । मायासंज० उ० पदे० विसे । अण्णदरे आउगे उक्क० पदे० विसे० । णीचा० उक्क० पदे० विसे० । लोभसंज० उक्क० पदे० विसे० । असादा० उ० पदे० विसे० । जस०-उच्चा० उक्क० पदे० विसे० । सादा० उ० पदे० विसे० । १०४. आदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा अपञ्चक्खाणमाणे उक्क० पदे । कोधे० उक्क० पदे० विसे । माया० उ० प० विसे० । लोभ० उ० प० विसे । एवं मूलोघं याव केवलदंसणावरणीयस्स उक्कस्सपदेसग्गं । ओरा० उक्क० पदे० अणंतगु० । तेजा० है। उससे रति-अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे स्त्रीवेद-नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे दानान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है। उससे लाभान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे भोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे परिभोगान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे मनःपर्ययज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे श्रुतज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे आभिनिवोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे अवधिदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अचक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे मायासंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्न विशेष अधिक है। उससे अन्यतर आयुका उत्कृष्ट प्रदेशान विशेष अधिक है। उससे नीचगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे लोभसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे यश कीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। उससे सातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। १०४. आदेशसे नारकियोंमें अप्रत्याख्यानावरण मानका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । इस प्रकार केवलदर्शनाधरणीयका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र विशेष अधिक है इस स्थानके प्राप्त होने तक मूलोघके समान भङ्ग है। आगे औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र १. आ० प्रलौ 'अचक्खु० चक्नु० उक्क० पदे० विसे० । पुरिस' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy