________________
महाबन्ध का सारांश
ξ
'महाबन्ध' की चौथी और पाँचवीं पुस्तक में अनुभाग बन्ध का विवेचन है । 'अनुभाग' शब्द का अर्थ है - फल देने की शक्ति । जिस कर्म की जितनी फल देने की शक्ति प्राप्त होती है उसका नाम अनुभागबन्ध है। यह फल निषेकों के रूप में मिलता है। प्रकृतिबन्ध की भाँति पाँचवीं पुस्तक में भी स्पष्ट उल्लेख है कि ओघसे सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का कौन भाव है? औदयिक भाव है । ( ओघे. सव्वपगदीणं उक्कस्साणुक्कस्स अणुभाग बंधए त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । - पृ. २२१) मिथ्यात्व सबसे तीव्र अनुभाग वाला है । अनन्तानुबन्धी लोभ का अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। यही नहीं, अनन्तानुबन्धी लोभ के अनुभाग से मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । (वही, पृ. २२५) यह भी नियम है कि मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध करता है । (वही, पृ. २)
यह भी कहा गया है कि जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं वे ही अनुभागबन्धस्थान हैं। अन्य जो परिणामस्थान हैं वे ही कषाय उदयस्थान कहे जाते हैं । यह अवश्य है कि जघन्य स्थिति में अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान मिथ्यात्व और सोलह कषायों के सबसे कम तथा उत्कृष्टस्थिति में विशेष अधिक होते हैं। इस विशेषता का उल्लेख भी यहाँ किया गया है कि अप्रशस्त ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व के सन्मुख होकर बाँधता है और प्रशस्त ध्रुवबन्ध वाली प्रकृतियों को सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वके सन्मुख होकर बाँधता है । अतः इनके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध के अन्तरकाल का निषेध किया गया है। (वही, पृ. ३६८)
यद्यपि सर्वघाती और देशघाती का भेद घातिकर्मों में किया जाता है, किन्तु अघातिकर्मों को घातिप्रतिबद्ध मानकर चतुर्थ पुस्तक में निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणा रूप में दो भेद किये गये हैं । आठों कर्मों के जो देशघातिस्पर्धक कहे गए हैं, उनकी प्रथम वर्गणा से लेकर निषेकों का विचार किया गया है। प्रत्येक कर्म-परमाणु में अनन्तानन्त शक्त्यंश उपलब्ध होते हैं। अनुभाग के शक्ति-अंश को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं । अनुभाग में ऐसे कर्म-परमाणुओं का कथन किया जाता है जिनमें समान अविभागप्रतिच्छेद पाए जाते हैं। इन कर्म-परमाणुओं के प्रत्येक वर्ग और उनके समुदाय की वर्गणा संज्ञा । अनुभाग की अपेक्षा एक-एक वर्गणा में अनन्तानन्त वर्ग होते हैं। इस प्रकार की अनन्तानन्त वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है । पहली वर्गणा से दूसरी, तीसरी आदि वर्गणा के प्रत्येक वर्ग में एक-एक प्रतिच्छेद अधिक होता है। इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक जानना चाहिए ।
अघातिकर्मों में प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से अनुभाग दो प्रकार का है । प्रशस्त अनुभाग अमृत के समान और अप्रशस्त अनुभाग विषके समान माना गया है। क्योंकि घातिकर्मों की सभी प्रकृतियाँ पापरूप ही होती हैं। सादि-अनादि, ध्रुव - अध्रुवबन्धरूप प्ररूपणा की गयी है। इसमें यही विशेष है कि भव्यजीवों में ध्रुवबन्ध नहीं होता है। शेष मार्गणाओं में सादि तथा अध्रुवबन्ध होता है । स्वामित्वप्ररूपणा के अन्तर्गत प्रत्ययानुगम की अपेक्षा छह कर्म मिध्यात्वप्रत्यय, असंयमप्रत्यय और कषायप्रत्यय होते हैं । 'महाबन्ध' में बार-बार यह कहा गया है कि औदयिक भाव बन्ध के कारण है। वास्तव में मोह जनित औदयिक भाव ही बन्ध के कारण हैं ।
'महाबन्ध' के छठे और सातवें भाग में प्रदेशबन्ध का विशद वर्णन है । कर्मरूप से परिणत पुद्गल स्कन्धों की संख्याका अवधारण परमाणु रूप से होना कि कितने परमाणु कर्म रूप से परिणत हुए, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं । जीवके समीपं योगस्थानों के द्वारा बहुत प्रदेशों का आगमन होता है। अतः योगस्थान प्ररूपणा के अन्तर्गत दश अनुयोगद्वारों में प्रतिपादन किया गया है। वस्तुतः आठ कर्मों के बन्ध के समय कर्म-परमाणुओं का सबसे अल्प भाग आयुकर्म को मिलता है। उससे विशेष अधिक नामकर्म को और उससे भी विशेष अधिक गोत्रकर्म को मिलता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्म को विशेष अधिक भाग मिलता है। उससे भी विशेष अधिक वेदनीय कर्म को मिलता है । यह स्वाभाविक ही है कि जिस कर्म की जैसी स्थिति है, उसे वैसा ही भाग उपलब्ध होता है। मोहनीय का ज्ञानावरणादि के द्रव्य से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org