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महाबन्ध
बहुत द्रव्य मिलता है। उत्तर प्रकृतियों में कर्म परमाणुओं का वितरण कर्मबन्ध के समय ज्ञानावरणीय कर्म को जो एक भाग मिलता है वह चार भागों में विभक्त होकर आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण इन चार कर्मों को प्राप्त होता है। इनमें विशेष रूप से यह देने योग्य है कि मोहनीय कर्म को उपलब्ध देशघातीय भाग दो भागों में विभक्त हो जाता है-कषाय वेदनीय और नोकषायवेदनीय। कषायवेदनीय का द्रव्य चार भागों में और नोकषायवेदनीय का पाँच भागों में विभक्त हो जाता है। और मोहनीय कर्म को जो सर्वघाति द्रव्य प्राप्त होता है उनमें से एक भाग चार संज्वलन कषायों में तथा दूसरा एक भाग बारह कषायों में और मिथ्यात्व में विभक्त हो जाता है।
जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से प्ररूपणा दो प्रकार की गई है। ओघ से सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट और अनुष्कृष्ट प्रदेशबन्ध करने वाले जीवों का भाव औदयिक कहा गया है। भावानुगम की अपेक्षा भी ओघ
तियों के भजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपद के बन्धक जीवों का भाव भी औदयिक कहा गया है। जो कुल जीवराशि है उसमें सब प्रकृतियों के सम्भव सभी पदों के बन्धकों का विभाग किया जाए, तो कितना भाग किसको मिलेगा, यह विचार भागाभाग में किया गया है। सब पदों के बन्धक जीवों का परिमाण अनन्त कहा गया है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक जीवों में सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करने वाले जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण है। इनमें नरकायु, मनुष्यायु, देवायु का निरन्तर बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि इनका बन्ध करने वाले अधिक से अधिक असंख्यात जीव होते हैं। आयुबन्ध का कुल काल अन्तर्मुहूर्त होने से इनका निरन्तर बन्ध सम्भव नहीं है। सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपने-अपने स्वामित्व के अनुसार होता है। 'महाबन्ध' के सातवें भाग में विस्तार से क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव तथा अल्पबहुत्व के भंगों के रूप में विवेचन किया गया है। स्वामित्व में विशेषता यह कही गयी है कि मिथ्यात्व के अवक्तव्यबन्ध का सासादन सम्यक्त्व से च्युत होकर जो प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि हुआ है वह जीव स्वामी है। (भाग ७, पृ. २३०)
बन्ध करनेवाले जीवों का सभी लोक क्षेत्र है। तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पद के बन्धक जीवों का जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण है। सामान्यतः जघन्य अन्तर सभी जीवों का एक समय है किन्तु उत्कृष्ट अन्तर में भिन्नता है। सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व या सासादन को अधिक-से-अधिक सात दिन-रात प्राप्त नहीं होते। भावानुगम की अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है जो अनाहारक मार्गणा तक है। मिथ्यादृष्टि असंज्ञी जीवों में पंचेन्द्रिय जीवों के समान अल्पबहुत्व का भंग है। मिथ्यादृष्टि के जो प्रदेशबन्ध स्थान होते हैं उतने को परिपाटी कहते हैं। अवस्थितबन्ध इसलिए कहलाता है कि इस समय जो जीव जिन प्रदेशों को बाँधता है उनको अनन्तर (बाद में) पिछले समय में घटाकर या बढ़ाकर बाँधे गये प्रदेशों के अनुसार उतने ही बाँधता है। अबन्ध के बाद बन्ध होना अवक्तव्यबन्ध कहलाता है। प्रायः सभी प्रकृतियों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। कृष्ण, नील, कापोत लेश्या वाले जीव सब लोक में पाये जाते हैं। भव्य जीवों में ओघ के समान भंग है। अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में मत्यज्ञानी जीवों के समान भंग है।
महाबन्ध का प्रयोजन
'महाबन्ध' के लेखन का एक मात्र प्रयोजन जीवों को मौजूदा परिस्थिति का ज्ञान कराना है। जीव किस प्रकार अपनी करतूत से संसार के जेलखाने में पड़ा है। इस पराधीनता को जाने बिना कोई स्वतन्त्रता का पुरुषार्थ कैसे कर सकता है? इसमें कोई सन्देह नहीं है कि संयम, तप, त्याग का मार्ग स्वाधीन होने का उपाय है। आध्यात्मिक जागृति बिना यह सम्भव नहीं है। अतः उसका पुरुषार्थ करना चाहिए।
२६-८-१९६६
-देवेन्द्रकुमार शास्त्री
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