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________________ कालपरूवणा ७३ आउ० सव्वप० अहचों। [ एवं ] ओधिदं०-सम्मा०-खइग०-वेदग०-सम्मामि० । संजदासंज. सत्तण्णं क. तिण्णिप० छच्चों । आउ० खेत्तभंगो। तेउ० देवोपं । पम्माए सहस्सारभंगो। सुकाए आणदभंगो । णवरि सत्तणं क० अवत्त ० खेत्तभं० । सासणे सत्तण्णं क० तिण्णिप० अह-बारह । आउ० सव्वप० अट्टचों। एवं फोसणं समत्तं' कालाणुगमो १३७. कालाणुगमेण दुवि०-ओषे० आदे०। ओघे० [सत्तण्णंक० भुज० अप्प० अवढि० सव्वद्धा । अवत्त० ज० ए०, उ० संखेंजसम० । आउ० सव्वपदा० सव्वद्धा। एवं कायजोगि-ओरालि०-अचक्षु०-भवसि०-आहारग ति। एवं चेव तिरिक्खोघं एइंदि०-पंचकाय०-ओरालियमि०-णवंस०-कोधादि४-मदि-सुद०-असंज०तिण्णिले०-अभव०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारगत्ति । णवरि सत्तण्णं क० अवत्त० णस्थि । लोमे मोह० अवत्त० अत्थि । आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि,क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिये । संयतासंयत जीवों में सात कर्मो के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। पीतलेश्यावाले जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सहस्रार कल्पके समान भङ्ग है। शुक्ललेश्यावाले जीवों में ओनतकल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि शुक्कुलेश्यामें सात कर्मों के अवक्तव्य पदका भङ्ग क्षेत्रके समान है। सासादनसम्यक्त्वमें सात कर्मो के तीन पदों के बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सब पदोंके बन्धक जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ___ इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ। १३७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका काल सर्वदा है। अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । आयुके सब पदोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्च, एकेन्द्रिय, पाँच स्थावरकायिक, औदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सात कर्मोका अवक्तव्यपद नहीं है। मात्र लोभकषायमें मोहनीयका अवक्तव्यपद है। विशेषार्थ-ओघसे सात कर्मों के भुजगार आदि तीन पद यथासम्भव एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए इनका काल सर्वदा कहा है और इनका अवक्तव्यपद उपशम १. ता०प्रतौ एवं फोसणं समत्तं इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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