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________________ खेतपरूवणा एवं सुक्कले० खइग० । णवरि सत्तण्णं क० अवत्त० संखेंज्जा । एवं परिमाणं समत्त खेत्ताणुगमो १३१. खेत्ताणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सत्तण्णं क० भुज०-अप्प०अवहि० केवडि खेते ? सबलोगे। अवत्त० लोग० असंखें । आउ० सव्वपदा सव्वलो । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-लोभका० मोह० अचक्खु०-भवसि०. आहारग त्ति । एवं चेव तिरिक्खोघं एइंदि०-सव्वसुहुम-पुढ०-आउ-तेउ ०-वाउ०वणप्फदि-णियोद०-ओरालिमि०- णबुंस०- कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०तिण्णिले०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि त्ति । णवरि सत्तण्णं क० अवत्तव्वं णत्थि । और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सात कोके अवक्तब्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ। क्षेत्रानुगम १३१, क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। आयुकर्मके सप पदोंके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इस प्रकार ओघके समान, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायवालोंमें मोहनीयका, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्च, एकेन्द्रिय, सब सूक्ष्म, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी. असंयत, तीन लेश्याबाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सात कोका अवक्तव्यपद नहीं है। विशेषार्थ—ओघसे सात कर्मों के तोन पदवाले जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए उनका सब लोक क्षेत्र कहा है । तथा इनके अवक्तव्यपदके वे ही स्वामी हैं जो उपशमश्रेणिसे उतरे हैं या वहाँ मरकर देव हुए हैं। अतः ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतः सात कर्मों के अवक्तव्यपदवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आयुकर्मके सब पद एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके सम्भव हैं, इसलिए ओघसे आयुकर्मके सब पदवालोंका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण कहा है। यहाँ काययोगी आदि जो मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जानने की सूचना की है। सामान्य तियश्च आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें भी ओघके समान जानने की सूचना की है। कारण स्पष्ट है । मात्र उनमें सात कर्मोंका अवक्तव्यपद नहीं होता, क्योंकि उनमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव नहीं, इसलिए सात कर्मों के अवक्तव्यपदको छोड़कर उनमें ओघके समान क्षेत्र जानना चाहिए। १. ता० प्रती एवं परिमाणं समत्तं इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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