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________________ कालपरूवणा ३१ ६३. देवेमु सत्तणं कम्माणं उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तँत्तीसं सा० । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो हिदीओ दव्वाओ । ६४. एइंदि० सत्तणं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० असंखेजा लोगा । बादरे अंगुल० असं० । बादरपज० संखेजाणि वाससहस्साणि । एवं वणफदि० । सव्वसुहुमाणं सत्तण्णं क० टक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० सेडीए असंखे० ० । विगलिंदि० सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० संखेजाणि वाससह ० | एवं पञ्जत्ता० । पंचिं० -तस०२ सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपु० बेसागरोवमसह ० पुव्वकोडिपुध० । पजत्ते सागरोवमसदपुधत्तं बेसागरोवमसहस्साणि । ६५. पुढ० - आउ० तेउ०- वाउ-वणप्फदि- णियोद० सत्तण्णं क० उ० ओघं । ६३. देवोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार सब देवों में जानना चाहिए। मात्र इनमें अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण जानना चाहिए । ६४. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है । बादरोंमें अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पर्याप्तकों में संख्यात हजार वर्ष है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों में जानना चाहिए। सब सूक्ष्म जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विकलेन्द्रियोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का काल ओके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । इसी प्रकार इनके पर्याप्तकों में जानना चाहिए। पचेन्द्रियद्विक और सद्विकमें सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पश्चेन्द्रियोंमें पूर्वकोटि अधिक एक हजार सागर और त्रसकायिकों में पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है। तथा पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण और त्रसपर्याप्तकों में दो हजार सागर है । विशेषार्थ — यहाँ जिसकी जो कार्यस्थिति है, उसके अनुसार अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कहा है । मात्र एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध बादर एकेन्द्रियोंके होता है और बादर एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए एकेन्द्रियोंमें अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है; क्योंकि जो एकेन्द्रिय असंख्यात लोकप्रमाण काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय होकर रहते हैं, उनके इतने काल तक एकेन्द्रिय सामान्य की अपेक्षा नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । तथा सूक्ष्म एकेन्द्रियों में सात कर्मों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जो उत्कृष्ट काल जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो इसका कारण योगस्थानके अवान्तर भेद हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है । ६५. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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