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________________ महाबंचे पदेसंबंधाहियारे ६१. णिरएस सत्तण्णं क० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ' ९०, उ० तैंतीसंसा० । एवं सत्तसु पुढवीसु अप्पप्पणो द्विदीओ भाणिदव्वाओ । ६२. तिरिक्खेसु सत्तणं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० अनंतकाल - मसंखे ० । एवं तिरिक्खोघभंगो णवुंस०-मदि ० - सुद० - असंज ० - अचक्खु ० - भव०अन्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णि त्ति । णवरि अचक्खु ० - भवसि० छण्णं क० ओघं । पंचिदियतिरिक्ख ०३ सत्तण्णं क० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तिष्णिपलि० पुव्व० | पंचिं ० तिरि० अपज० अट्ठण्णं क० उ० ज० ए०, उ० वेसम ० १ । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । एवं सव्वअपजत्ताणं तसाणं थावराणं सव्वसुहुमपञ्जत्तगाणं च । मणुस ०३ पंचिं० तिरि०भंगो । ૨ ३० जो अनन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको पूर्ण करेगा उसके होता है, इसलिये इसके आयुकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । ज० ६१. नारकियों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिये । मात्र अनुत्कृष्टका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए । ६२. तिर्यों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त कालप्रमाण है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों के समान नपुंसकवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंमें छह कर्मों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें आठों कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तकों के तथा सब सूक्ष्म पर्याप्तकों के जानना चाहिए। मनुष्यत्रिक में पचेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है । विशेषार्थ – यहाँ सब मार्गणाओं में सात कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल जिस प्रकार ओघसे घटित करके बतला आये हैं, उस प्रकार से घटित कर लेना चाहिये। आगे भी यह काल इसी प्रकार घटित चाहिए । मात्र अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का उत्कृष्ट काल सब मार्गणाओंमें अलग-अलग है. सो यह काल भी जहाँ जो काय स्थिति हो उसके अनुसार घटित कर लेना चाहिए। हाँ, जिन मार्गणाओंका काल अर्धपुद्गलपरिवर्तन से अधिक है और उनमें उपशमश्रेणि व क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव है, उनमें इन कर्मोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल ओघके समान जाननेकी सूचना की है। कारण स्पष्ट है । १. प्रा० प्रतौ वेसम०, अणु० ज० ए०, उ० बेसम०, अणु० इति पाठः । २. ता० प्रतौ ज० ९० बेसम० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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