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________________ उत्तर पगदिपदे बंधे परिमाण परूवणा ३६१ ५८०. आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा० चदुदंसणा ० सादा० चदु संज० पुरिस०जस गि० - तित्थ० उच्चा० - पंचंत० उक्क० केव० १ संखेजा । अणु० केव० १ असंखेजा । मसाउ०- आहार० दोपदा० केव० ? संखखा । सेसाणं उक्क० अणु० के० १ असंखेजा । एवं ओधिदं०- सम्मादि० - वेदग० । णवरि' वेदगे चदुसंज० - मणुसाउ० - आहार०२तित्थय • ओधिभंगो । सेसाणं दोपदा असंखेजा । तेउ-पम्माए वि एसो चेव भंगो । ० सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मरकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें संख्यात जीव ही मनुष्यायुका बन्ध करते हैं । इस कारण यहाँ मनुष्यायुके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण भी संख्यात कहा है। शेष कथन सुगम है ? - ५८०. आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यश: कीर्ति, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । मनुध्यायु और आहारकद्विकके दो पदोंका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं ? शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में चार संज्वलन, मनुष्यायु, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । शेष प्रकृतियोंके दो पदोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । पीतलेश्या और पद्मलेश्या में भी यही भङ्ग है । विशेषार्थ - आभिनिबोधिक आदि तीनों ज्ञानों में पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात होनेका जो कारण ओघ प्ररूपणा में बतला आये हैं, वही यहाँ भी जान लेना चाहिए। तथा ये तीनों ज्ञानवाले जीव असंख्यात होते हैं, इसलिए यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात बतलाया है । यहाँ मनुष्यायु और भहारकद्विकके दो पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात होते हैं तथा शेष प्रकृतियों के दो पदोंका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात होते हैं, यह स्पष्ट ही है । यहाँ कही गई अवधिदर्शनी आदि तीन मार्गणाओंमें यह प्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए उनमें आभिनिबोधिकज्ञानी भादिके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र वेदकसम्यक्त्वमें चार संज्वलन, मनुष्यायु, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिके दोनों पदोंके बन्धक जीवोंका भङ्ग तो अवधिज्ञानी जीवोंके समान ही है, क्योंकि जिस प्रकार अवधिज्ञानियों में चार संज्वलन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात तथा मनुष्यायु और आहारकद्विकके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात बतलाये हैं, उसी प्रकार वेदकसम्यक्त्वमें भी इन प्रकृतियोंकी अपेक्षा उक्त परिमाण प्राप्त होता है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात ही होते हैं, इसलिए आभिनिबोधिकज्ञानी आदिसे वेदकसम्यग्दृष्टिमें जो विशेषता है उसका सूचन अलगसे किया है। तात्पर्य यह है कि वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्ति सातवें गुणस्थान तक ही होती है, इसलिए इसमें चार संज्वलन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवालोंका परिमाण संख्यात तो बन जाता है, पर पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और १. ता० प्रती ' सम्मादिहि० देवग०- ( वेदग० ) वरि' इति पाठः । ४६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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