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________________ महाबंधे पदेसंबंधाहियारे ५७८. इत्थवेदे [ पंचणाणा०- ] चदुदंस० - [सादा०- ] चदुसंज० - पुरिस० जस०[ उच्चा०-पंचंत० ] उक्क० के० १ संखेजा । अणु० के ० १ असंखेजा । आहार ०२ - तित्थ ० उक्क० अणु० के० १ संखेजा । सेसाणं दो वि पदा असंखेआ । एवं पुरिस० । णवरि० तित्थ ओघं । ३६० ५७९. विभंग' ० -संजदासंजद० - सासण० सम्मामि० सव्वपगदीणं उक० अणु० केव० ? असंखेजा । णवरि संजदासंजदेसु तित्थ० उक० अणु० केव० ९ संखेंआ । सासणे मणुसाउ ० उक्क० अणु० केव० ९ संखेजा । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण जो संख्यात कहा है सो इसका स्पष्टीकरण ओघके समान जान लेना चाहिए । ५७८. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके दोनों ही पदवाले जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघ के समान है । विशेषार्थ – पाँच ज्ञानावरण आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध गुणस्थानप्रतिपन्न ममुष्यिनी जीव स्वामिस्वके अनुसार यथायोग्य स्थान में करते हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले स्त्री वेदियों का परिमाण संख्यात कहा है । किन्तु इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सभी स्त्रीवेदी जीव करते हैं, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात कहा है । स्त्रीवेदियोंमें आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध मनुष्यिनी जीव ही करते हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवालोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा इनके सिवा यहाँ जितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं, उनका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध स्वामित्व अनुसार यथायोग्य सर्वत्र सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे दोनों पदवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है । पुरुषवेदो जीवोंमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें स्त्री वेदियोंके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र तीथंकर प्रकृतिके विषय में ओघमें जो प्ररूपणा की है वह पुरुषवेदियोंमें बन जाती है, इसलिए पुरुषवेदियों में तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान जाननेकी सूचना की है । ५७९. विभङ्गज्ञानी, संयतासंयत, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? असंख्यात होते हैं । इतनी विशेषता है कि संयतासंयतों में तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? संख्यात होते हैं । तथा सासादनसम्यग्दृष्टियों में मनुष्यायुका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव कितने होते हैं ? संख्यात होते हैं । विशेषार्थ — तिर्यों में तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध नहीं होता, इसलिए संयतासंयतों में तीर्थङ्कर प्रकृतिके दोनों पदोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका परिमाण संख्यात कहा है। तथा १ ता० आ० प्रत्योः 'णवरि तिस्थ० श्रोषं । णपुः ससके । पंचणा० सादा० उच्चा० पंचत० उ० के० ? श्रसंखेजा । श्रणु० के० ? श्रसंखेजा । श्रणु० के० ? अनंता । सेर्स श्रोधं । एवं तिष्णिक० । विभंग ०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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