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________________ उत्तरपर्गादपदेसबंधे सण्णियासं दोवेद०-मिच्छ ०-अणंताणु०४-इस्थि०-णस०-दोगदि-छ संठा०-छस्संघ०-दोआणु०उजो०-दोविहा०-थिरादिछयुग-तित्थ०-दोगो० सिया० जह० । छदंस-बारसक०भय-दुगुं० णि तंतु० अणंतभागब्भहियं० । पंचणोक० सिया० तंन्तु० अणंतभागभंहियं० । एवं पंचिंदियभंगो ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि० अंगो०वञ्जरि०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादितिण्णियुग०-सुभग-सुस्सर-आदेंणिमिण ति । सेसाणं तीसंसंजुत्ताणं तिरिक्खगदिभंगो। एवं णेदवाओ' सव्वाओ पगदीओ। __५६०. एवं पम्माए सुक्काए वि । सुक्काए आभिणि. जह० पदे बं० चदुणा०पंचंत. णि पं० णि० जह० । थीणगिद्धि०३-दोवेद०-मिच्छ०-अणंताणु०४-इथि०. णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणार्दै०-दोगोद० सिया० जह० । प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल, तीर्थङ्कर और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। पाँच नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्त भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीस संयुक्त प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंको ले जाना चाहिए। ५६०. पीतलेश्यावालोंके समान पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीवाम भी ले जाना चाहिए । मात्र शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, वारह कषाय, 1ता०मा०प्रत्योः णिमिण त्ति । सेसाणं तीसं संजुत्ताणं 'तिरिक्खगदिभंगो। देवगदि. जह० पदे० बं० वेउव्वियस. वेउब्वि. अंगो. देवाणु० उच्चा० गाणंतरायं पंचंत० मि. बं.णिजह । सेसाओ णामपगदीश्रो संखेजभागब्भदियं । एवं णेदवाओं' इति पाठः। २. ता०प्रती 'मुक्काए वि। आभिणि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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