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________________ ३४६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० जह० । पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-०-ओरालि०अंगो०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-उजो०-तस०४-णिमि० णि. बं० णि. जहः । एवं तिरिक्खगदिभंगो संठाणं सम्माणं मिच्छादिद्विपाओग्गाणं ।। ५५७. मणुस० जह० पदे०५० पंचणा०-उच्चा०-पंचंत. णि बं० णि. जह। छदंस-बारसक०-पुरिस०-भय-दुगु० णि. बं० णि. अजह० अणंतभागब्भ० । दोवेदणी०-थिरादितिण्णियुग' सिया० जह० । चदुणोक० सिया० अणंतभागभं० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं मणुसाणु०-तित्थः । ५५८. देवग० जह० पदे०६० हेहा उवरि मणुसगदिभंगो। णामाणं सत्थाण.. भंगो। मणुस० जहण्णयं देवगदि० ४। ५५९. पंचिंदि० जह० पदे० ५० पंचणा-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालिअंगो०वण्ण०४-अगु-४-तस०४-णिमि०-पंचंत. णि. बं. णि. जह० । थीणगिद्धि०३करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करतो है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आजोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इस प्रकार अर्थात् तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान मिथ्यादृष्टिप्रायोग्य संस्थान आदि जो भी प्रकृतियाँ हैं उन सबका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५५७. मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभाग अधिक अजघन्य प्रदेशवन्ध करता है। नामकमकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त समिकर्षके समान मनुष्यगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्करका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। ५५८. देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके इन प्रकृतियोंका कहे गये सन्निकर्षके समान भङ्ग है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। मात्र देवगतिचतुष्कका जघन्य प्रदेशबन्ध मनुष्यके होता है। ५५९. पवेन्द्रियजातिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कामेणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वणेचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य १ ता०-आ०प्रत्योः 'दो वेउ• थिरादितिण्णियुग' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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