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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ३१५ तित्थ० सिया० जह० । तित्थ० जह० पदे०७० मणुसाउ० णि. पं० णि. जहः । सेसाणं धुवपगदीणं णि. पं० णि० अजह. असंखें गुणन्महि । सत्तमाए मणुस० जह०' पदे०५० सम्मत्तपाऑग्गाणं धुवियाणं णि० बं० णि० अजह० असंखेंजगुणब्भहियं० । परियत्तमाणिगाणं सिया०२ असंखेंगुणब्भहियं । एवं मणुसाणु०-उच्चा० ।। ५०४. तिरिक्ख०-पंचिंदि०तिरिक्ख०-पंचिंदियतिरिक्सपज्जत्त-जोणिणीसु' ओघो। णवरि जोणिणीसु णिरयाउ० जह० पदे०५० णिरय०-वेउवि०-बेउव्वि०अंगो०-णिरयाणु० णि० जह० । सेसाणं णि. बं० णि अजह० असंखेंजगुणब्भहियं० । देवाउ० जह० पदे०७० देवगदि-वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० णि० ० णि. जहः । सेसाणं धुवियाणं णि. अजह. असंखेंजगुणब्महियं० । परियत्तमाणिगाणं सिया० असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव मनुष्यायुका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव सम्यक्त्वप्रायोग्य ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५०४. सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियों में नरकायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव नरकगति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष ध्रुवचन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। परावर्तमान प्रकृतियोंका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। १. आप्रतौ 'सत्तमाए जह' इति पाठः। २. ता.प्रतौ 'परियत्तमाणिगाणं सिया' इति पाठः । ३. ता०प्रती 'उच्चा० तिरिक्ख० पंचिं० तिरि । पंचिंदियतिरिक्खपजत्तजोणिणीसु' इति पाठः। ४. ता०प्रती 'वेउoअंगो देवाणु०]...."धुवियाणं मि० अज० असखे० गु० परियत्तमाणिगाणं[चिह्वान्तर्गतपाठः ताडपत्रीयमूलप्रतौ पुनरुक्तोस्ति] |"""[ अत्र ताड़पत्रमेकं विनष्टम् ] सियाः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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