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________________ महाधंधे पदेसबंधाहियारे भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि० ५० णि. जह' । दोवेद०-सत्तणोक० सिया० जह० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं सव्वाणं णामाणं हेट्ठा उवरिं तिरिक्खगदिभंगो । णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो । णवरि मणुसगदिदुगस्स दोगोदं अस्थि । ५०२. तित्थं जह० पदे०६० पंचणा०-छदंसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुं०. उच्चा०-पंचंत० णि० बं० णि० अजह. असंखें गुणब्भहियं० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० असंखें गुणब्भहियं० । णामाणं सत्थाणभंगो। ५०३. एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि विदिय-तदिय० [सादा०] जह० पदे०५० पंचणा०२-छदंसणा०-बारसक०-भय-दुगु० - मणुस-पंचिंदि० - ओरालि०-तेजा० - क० ओरालि०अंगो०-वण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०-पंचंत० णि. बं० णि. अजह. असंखेंगुणन्भ० । थीणगिद्धि०३-दोवेद०-मिच्छ. -अणंताणु०४-सत्तणोक०छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयुग०-दोगोद० सिया० असंखेंजगुणन्भ० । वरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और सात नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । नामककी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार नामकर्मकी सब प्रकृतियोंमेंसे विवक्षित प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान है। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके दो गोत्रका यथायोग्य बन्ध होता है। ५०२. तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ५०३. इसी प्रकार अर्थात् सामान्य नारकियों में कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरी और तीसरी पृथिवीमें सातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धि त्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सात नोकषाय, छह संस्थान, उह संहनन, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे १. ता०प्रतौ ‘णीचा० [पंचंत० णि० बं० णि० ] जह०' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'तदिय... [जह० पदे०] बं० पंचणा० प्रा०प्रतौ 'तदिय० जह० पदेवब पंचणा' इति पाठः । ३. आप्रती 'थीणगिद्धि ३ मिरछ०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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