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________________ सत्सरपगदिपदेसबंधे सणियासं ३११ ४९४. देवगदि० जह० पदे०६० पंचणा०-छदंस०-बारसक०-भय-दु०-पुरिस०उच्चा०-पंचंत० णि ५० णि. अजह० असंखेंजगुणब्भहियं० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० असंखेंजगुणब्भहियं० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं वेउवि०-वेउवि० अंगो०देवाणु० । ४९५. आहार० जह० पदे०७० पंचणा०-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०हस्स-रदि-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० ५० णि० अजह ० असंखेजगुणब्भ० । णामाणं सत्थाणभंगो। ४९६. तित्थ०२ जह० पदे०५० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि० बं० णि अजह• असंखेंजगुणब्भ० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० असंखेंजगुणब्भ० । णामाणं सत्थाणभंगो।। ४९७. उच्चा० जह० पदे०५० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय दु०. पंचंत० णि० बं० णि० जह० । दोवेद०-सत्तणोक० सिया० जह० । मणुसग०-मणुसाणु० ४९४. देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजवन्य प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार अर्थात् देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। ४९५. आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है. जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । नामकमकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। ४९६. तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि वन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। नामकमकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ४९७. उच्चगोत्रका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय और सात नोकषायका कदाचित १.ता०प्रतौ 'पुरिसवेदाणा गरछति। देवग०' प्रा०प्रतौ 'पुरिसवेदाणं गच्छत्ति । देवगदि.' इति पाठः । २. ता०प्रती 'णामा[णं सस्थाणभंगो तिरथ' इति पाठः। ३. ता०प्रती सिया० मणुसग.' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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