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________________ महाबँधे पदेसबंधा हियारे ४९२. देवाउ० जह० पदे०बं० पंचणा०-णवदंस०-सादा०- - मिच्छ०-सोलसक०इस्स-रदि-भय-दु० - देवर्गादि- पंचिंदि० - वेउव्वि०- तेजा०० क० - समच० - वेड व्वि० अंगो० 'वण ०४- देवाणु ० - अगु०४ - पसत्थ-तस०४ - थिरादिछ-उच्चागोद ० णि० चं० णि० असंखेजगुण महियं ० । इत्थि० - पुरिस० सिया० असंजगुणन्भहियं ० । २ ३१० ४९३. तिरिक्ख० जह० पदे०चं० पंचणा०-गवदंस०-मिच्छ० सोलसक० -भयदु०-णीचा० - पंचत० णि० बं० णि० जह० । दोवेद० सत्तणोक० सिया० जह० । णामाणं सत्थाण० भंगो। एवं तिरिक्खगदिभंगो मणुसगदि - पंचजादि- तिण्णिसरीरछस्संठा० - ओरालि० अंगो० - छस्संघ० वण्ण०४ - दोआणु० - अगु०४ - आदाउजो० दोविहा०तसादि ० दसयुग० - णिमि० हेड्डा उवरिं । णामाणं अप्पप्पप्णो सत्थाण० भंगो । मणुसगदिदुगस्स दोगोद० सिया० जह० । चदुजादि - आदाव - थावरादि०४ जह० पंदे० बंधं० इत्थि - पुरिसवेदा गांगच्छंति । ४ O ४९२. देवायुका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवराति पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे असंख्यातगुणा अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । - ४९३. तिर्यगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता हैं । दो वेदनीय और सात नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो नियमसे इनका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान मनुष्यगति, पाँच जाति, तीन शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल और निर्माणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्म से पूर्वकी और बादकी प्रकृतियों का सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिद्विकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । तथा चार जाति आतप और स्थावर आदि चारका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं करते । १. श्र०प्रतौ 'तेजाक० वेउग्वि० अंगो० इति पाठः । २. ताप्रतौ 'थिरादिछ असं गुणन्भ०' आ०प्रतौ 'थिरादिछयुग० दोगोद० सिया० अस खेज्जगुण भहियं' इति पाठः । ३. तान्प्रतौ 'तिरिक्खगदिभंगो | मणुसगदि' इति पाठः । ४. ता०प्रतौ 'सच्चा [ स्था] णभंगो । सिया' श्राप्रती 'सत्थाणभंगो | सिया०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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