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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सष्णियासं ४४२. णिरयाउ ० उक० पदे०चं० पंचणा० णवदंस० - असादा०-मिच्छ०बारसक० णवुंस०-अरदि-सोग-भय-दु० - णिरयगदिअट्ठावीस-णीचा० पंचंत० णि० बं० अणु संखेजदिभागणं बं० । चदुसंज० णि० ब ० णि० संखैअगुणही ० । तिष्णमाउगाणं ओघभंगो । 3 ४४३. निरयगादि० उक्त० पदे०चं० पंचणा० थीणगिद्धि ०३ - असादा० २ -मिच्छ०अणताणु ०४ - णवुंस० - णीचा० - पंचंत० ३ णि० नं० णि० उक० । छदंस० अट्ठक०अरदि-सोग-भय-दु० णि० बं० णि० अणंतभागणं बं० । कोधसंज० णि० ब ं० दुभागणं ब० । तिष्णिसंज० णि० ० सादिरेयं दिवडभागणं बं० । णामाणं सत्थाण० भंगो । एवं णिरयाणु० - अप्पसत्थ० - दुस्सर० । २७९ ४४४. तिरिक्ख० उक्क० पदे ० ब ० पंचणा० थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणु ०४बुंस०-णीचा ०- पंचंत० णि० ब० णि० उक्क० । छदंस० अट्ठक० -भय-दु० णि० बं० णि अनंतभागूणं बं० । [ दोवेदणी० सिया उक्क० । ] कोधसंज० णि० बं० दुभागूणं ० ० ४४२. नरकाका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम से संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । ४४३. नरकगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक. असातावेदनीय, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, आठ कपाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम से अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त त्रिहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४४४. तिर्यञ्चगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धि त्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। छह दर्शनावरण, आठ कपाय, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है । दो वेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । क्रोध संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो १. ता० आ० प्रत्योः 'संखेज्जगुणही । एवं तिष्णमाउगाणं' इति पाठः । २. ता० श्रा० प्रत्योः ‘श्रीणगिद्धि०३ सादा' इति पाठः । ३. ०प्रतौ 'णीचा० एवं (?) पंचत०' श्रा० प्रतौ 'णीचा० एवं पंचत०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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