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________________ २७८ महाबंध पदे सबंधाहियारे तं तु० संर्खेजदिभागूणं ब ं० । घेउन्धि० अंगो० सिया० तं० तु ० सादिरेयं दुभागूणं० । जस० सिया० संजगुणहीणं० । एवं रदि-भय-दु० । ४४१. अरदि० उक्क० पदे०ब० पंचणा०-णिद्दा-पयला- सोग-भय-दु ० उच्चा०पंचंत० णि० ब ं० णि० उक्क० । चदुदंस० णि० ब० अनंतभागूणं बं० । दोवेद ०अपचक्खाण०४ सिया० उक० । यच्चक्खाण ०४ सिया० तं तु ० अनंतभागणं बं० । कोधसंज० णि० दुभागणं ब० । तिण्णिसंज० णि० सादिरेयं दिवडभागणं बं० । पुरस [० - जस० सिया० संखेजगुणही ० । णवरि पुरिस० णि० । णामाणं' हस्तभंगो । णवरि बेउब्वि० अंगो० सिया० तं तु ० संखजदिभागणं ब० । पंचिंदिया दिपगदीओ णि० ब० । एवं सोग० । वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता है | यशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इसका नियम से संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४४१. अरतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, निद्रा, प्रचला, शाक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । दो वेदनीय और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेद और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है । इसके नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग हास्य प्रकृतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्ष समान है । इतनी विशेषता है कि यह वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इसका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तथा यह पञ्च ेन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । १. ताप्रती 'पुरि० सिया ( ? ) । णामारां' आ०प्रता 'पुरिस' सिया० । णामाणं' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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