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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं २७१ तं तु० संखेजदिभागूणं । वं० । तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० णि... णि तंतु० संखेंजदिभागणं बं० । एवं दोदंस०-मिच्छ०-अणंताणु०४ ।। ४३०. णिद्दाए उक्क० पदे०ब पंचणा०-पयला-भय-दु०-उच्चागो०-पंचंत० णि०० णि. उक्क० । चदुदंस० णि०० णि० अणंतभागणं । दोवेदणी०अपञ्चक्खाण०४-चदुणोक० सिया० उक्क० । पञ्चक्खाण०४ सिया० तं. तु० अणंतभागणं बं० । कोधसंज० णि० ० दुभागणं बं० । तिण्णिसंज० णि. बं. सादिरेयं दिवहभागणं बंधदि । पुरिस० णि. संखेंजगुणही० । मणुस०-ओरालि०-ओरालि०अंगो०-मणुसाणु०-थिराथिर-सुभासुभ-अज. सिया० संखेंजदिभागणं पं० । देवगदिवेउव्वि०-आहार-आहार०अंगो०-देवाणु-तित्थ० सिया० तंतु० संखेंजदिभागूणं बं०। पंचिंदि०-तेजा-क०-वण्ण०४ अगु०४-तस०४-णिमि० णि० ५० णि. है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार दो दर्शनावरण, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए । ४३०. निद्राका उत्पृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, प्रचला, भय, जुगुप्सा उचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो वेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदशवन्ध करता है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, आहारकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका 1. आप्रतौ 'सिया० संखेजदिभागूणं' इति पाठः । २. ता० प्रती 'णिमि० णिमि० (?) जि.' इति पाठः । ३. ता प्रतौ 'णिहाए जह• (उ०) बं०' इति पाठः। ४. ता०प्रती 'वेउ० [ अंगो०] आहारंगो.' भा०प्रती 'वेउविक आहार अंगो०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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