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________________ उत्तरपदिपदे बंधे सण्णियासं २६९ सिया० वाणियमा वा संखेजगु० । णवरि जस० उच्चा० उक्क० चदुसंज० णि० तं०तु० १ दुभागणं बं० : ४२८. माणकसासु आभिणि० उक्क० चं० चदुणा० पंचंत० णि० बं० उक्क० । थी गिद्ध ०३ - दोवेद ० - मिच्छ० - अनंताणु०४ - इत्थि० - णवुंस० - णिरय ० - णिरयाणु०आदाव० - दोगोद० सिया० उक्क० । णिद्दा- पयला- अट्ठक० छण्णोक० सिया० तं तु ० अनंतभागूणं बं० । चदुदंस० णि० बं० तं० तु० अनंतभागूर्ण बं० । कोधसंज० सिया० तं० तु० दुभागूणं बं० । तिष्णिसंज० णि० बं० णि० तंतु० विद्वाणपदिदं चं० संखेजदिभागहीणं बं० सादिरेयं दिवड्डभागणं बं० । पुरिस० जस० सिया० तं० तु० संखेजगुणही ० | तिष्णिगदि-पंचजादि - तिष्णिसरीर- छस्संठा०-ओरालि० अंगो०छस्संघ० - तिण्णिआणु ००- पर० उस्सा ० -उज्जो० दोविहा० - तसादिणवयुग० - अज० सिया० तं० कीर्ति और ऊँ गोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ४२८. मानकषायत्राले जीवामं आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, आठ कपाय और छह नोकपायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है | यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । क्रोधसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन संज्वलनोंका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे दो स्थान पतित अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है, संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है और साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेद और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन गति, पाँच जाति, तीन शरीर, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परवात, उच्छ्रास, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस आदि नौ युगल और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध १. ताज्या०पत्योः 'णामागोदाणं ओघभंगो । पुरिस० जस सिया० वा नियमा वा सरखेजगु० । वरि चदुदंस० णि बं दुभागृणं बं । णवरि चदुसांज उच्चा उक्क०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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