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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सगियासं २६५ सिया० संखेंजगुणहीणं । चदुणोक० मिया० तं तु० अणंतभागूणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। ४२४. तित्थ० उक्क० प०बं० पंचणा०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि० उक्क० । णिद्दा-पयला-दोवेदणी०-अपञ्चक्खाण०४-चदुणोक० सिया० उक्क० । चदुदंस०-चदुसंज० णि. बं० णि तंतु० अणंतभागूणं ब। पञ्चक्खाण०४ सिया० तं.तु० अणंतमागणं० । पुरिस० णि० ० संखेंजगुणही० । जस० सिया० संखेंजगुणही० । णामाणं सत्थाणभंगो। ४२५. उच्चा० उक्क० पदे०बं० पंचणा-पंचंत० णि. बं० णि• उक्क० । थीणगिद्धि०३-दोवेदणी-मिच्छ०-अर्णताणु०४-इत्थि० - णQस० - चदुसंठा०-चदुसंघ०तित्थ० सिया० उक्क० । णिद्दा-पयला-अट्ठक०-छण्णोक० सिया० तंतु० अणंतभागूणं बं० । चदुदंस०-चद संज० णि० ब० णि तंतु० अणंतभागणं बं । पुरिस०करता है। चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ४२४. तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, दो वेदनीय, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार दर्शनावरण और चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे इसका संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ४२५. उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार संस्थान, चार संहनन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय और छह नोकषायका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरण और चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट Jain Education Internati३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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