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________________ २६४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे णि तंतु० अणंतभागणं । ] पुरिस-जस० सिया० संखेंजगुणहीणं० । [चदुसंज०-] भय-दु० णि० ० णि तंतु० अणंतभागणं बं० । णामाणं सत्थाणभंगो। ४२२. आहार० उक्क० पदे०० पंचणा०-सादा०-चदुसंज०-हस्स-रदि-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि० बं० उक्क० । णिदा-पयला सिया० उक्क० । चददंस णि० बं० णि. तंतु. अणंतभागणं बं०। [पुरिस० णि. बं. णि० संखेजगुणहीणं । ] णामाणं सत्थाणभंगो । एवं आहारंगो० । ४२३. बजरि० उक्क० पदे० पंचणा०-पंचंत. णि०० णि० उक्क० । थोणगिद्धि०३-[ दोवेदणी०-] मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णस०-चदुसंठा०-णीचुच्चा० सिया० उक्क० । णिहा-पयला-अपचक्खाण०४-[भय-दु०-] णि तं तु. अणंतभागणं पं । चदुदंस०-अट्ठका० णि०० णि. अणु० अणंतभागणं 40 । पुरिस०-जस० करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेद और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ४२२. आहारकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, साता , चार संज्वलन, हास्य, रति, भय, जगासा, उचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा और प्रचलाका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे भागहीन अनत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है। जो नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार आहारकशरीर आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४२३. वर्षभनाराचसंहननका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार संस्थान, नीचगोत्र और उच्चगोत्र का कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है. तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरण और आठ कषायका नियमसे बन्ध करता है। जो नियमसे अनन्तभोगहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेद और यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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