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________________ २६० महाबंधे पदेसबंधाहियारे ४१५. अपञ्चक्खाणकोध० उक० पदे०ब पंचणा-णिद्दा-पयला-तिण्णिक०भय-दु०-पंचंत० णि०० उक्क० । चददंस०-अट्ठक० णि.4 णि. अणंतभागणं । पुरिस-जस० णि. बणि संखेजदिगुणहीणं । णवरि जस० सिया० । सादासाद०-चदणोक०-[वजरि०-] तित्थ. सिया० उक्क०। मणुस-ओरालि०ओरालि अंगो०-मणुसाणु०-थिराथिर-सुभासुभ-अजस० सिया० संखेजदिभागणं बं । देवगदि०४ सिया० तंतु० संखेजदिभागूणं बं०। पंचिंदि०-तेजा०-क०-वण्ण०४अगु०४-तस०४-णिमि० णि० बं० संखेजदिभागूणं बं० । समचदु०-पसत्थ०-सुभगसुस्सर-आदें णि० बं० णि. तं० तु. संखेंजदिमागूणं बं० । एवं तिण्णिक० । पचक्खाणकोध० उक्क. अपचक्खाणभंगो । णवरि मणुसगदिपंचगं वज । एवं तिण्णिक०। ४१६. कोधसंज० उक्क० पदे०० पंचणा०-तिण्णिसंज०-उच्चा०-पंचंत० णि. बं० णि० उक० । णिद्दा-पयला-दोवेदणी०-चदुणोक०-तित्थ० सिया० उक्क० । चदुदंस० ४१५. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, निद्रा, प्रचला, तीन कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरण और आठ कषायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेद और यशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यात गुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इतनी विशेषता है कि यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, वज्रर्षभनाराचसंहनन और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगतिचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे ख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। प्रत्याख्यानावरणक्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकी मुख्यतासे कहे गए सन्निकषके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिपञ्चकको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए । इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। ४१६. क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, तीन संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । निद्रा, प्रचला, दो वेदनीय, चार नोकषाय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्तष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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