SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णि थासं २५९ ४१३. साद० उक्क० पदे० आभिणिभंगो। णवरि णिरयगदिपगदीओ वज । अप्पसत्थ०-दस्सर० सिया० संखेजदिभागणं बौं । ४१४. असाद० उक्क० पदे०० पंचणा०-पंचंत० णि० ब० णि. उक० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णqस०-णिरय-णिरयाणु०-आदाव०-तित्थ०दोगोद० सिया० उक्क० । चददंस० णि० ५० णि. अणु० अणंतभागणं । दोण्णिदंस०-चदसंज.-भय- दणि ५ णि तंतु० अणंतभागणं । अडक०चदुणोक० सिया० तंतु० अणंतभागणं बं । पुरिस जस० सिया० संखेंजदिगुणहीणं । तिण्णिगदि-पंचजादि'-दोसरीर-छस्संठा०-दोअंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०-पर०उस्सा०-उज्जो०-दोविहा०-तसादिणवयुग०-अजस० सिया० तंन्तु० संखेजदिभागूणं । तेजा०-०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि० णि० ब० णि तंन्तु० संखेंजदिमागूणं च । ४१३. सातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीयका भङ्ग आभिनियोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि नरकगति सम्बन्धी प्रक्रतियोंको छोड देना चाहिये। तथा अप्रशस्त विहायोगति और दःस्वरका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४१४. असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ज्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, तीर्थङ्कर और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। दो दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आठ कपाय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेद और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीन गति, पाँच जाति, दो शरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस आदि नौ युगल और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदंशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि भनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। १. प्रा०प्रती 'सिण्णिगदि चदुजादि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy