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________________ उत्तर पर्गादिपदेसबंधे सण्णियासं सिया० तं० तु० संखेअगुणहीणं बं० । तिण्णगदि - पंचजादि - पंचसरीर- छस्संठा०तिष्णिअंगो०-छस्संघ०-वष्ण०४- तिष्णि आणु० - अगु०४-उज्जो ० दोविहा० तसादिणवयुग ०अजस० - णिमि० सिया० तं० तु ० संखैखदिभागूणं ब० । एवं चदुणा० पंचंत० । ४१०. णिद्दाणिद्दाए उक्क० पदे०चं० तिरिक्खग दिभंगो । गवरि पुरिस ० सिया० संखेअगुणहीणं ० ब० । एवं० दोदंस० - मिच्छ० - अनंताणु०४ । ०-जस० २५७ ४११. णिद्दाए उक्क० पदे०चं० पंचणा० - पयला० भय-दु ०-पंचंत० णि० ब ० णि० उक० । चदुदंस० णि० ब० अनंतभागूणं ब० । सादासाद० - अपच्चक्खाण ०४चोक ० व अरि० - तित्थ० सिया० उक० । पञ्चक्खाण०४ सिया० तं० तु० अणंतभागूणं बं'० । चदुसंज० णि० मैं ० णि० तं० तु ० अणंतभागणं ब० । पुरिस० णि० अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । पुरुषवेद और यशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । तीन गति, पाँच जाति, पाँच शरीर, छह संस्थान, तीन आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि नौ युगल, अयशः कीर्ति और निर्माणका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार चार ज्ञानावरण और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४१०. निद्रानिद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग तिर्यवगतिमें इस प्रकृति की मुख्यता से कहे गये सन्निकर्षके समान है । इतनी विशेषता है कि यह पुरुषवेद और यश:कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातगुणा to अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार दो दर्शनावरण, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४११. निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, प्रचला, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, चार नोकषाय, वार्षभनाराच संहनन और तीर्थङ्करप्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। संज्वलनचतुष्क का नियमसे बन्ध करता है। जो उत्कृष्ट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट करता है तो नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्ध करता है । पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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