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________________ उत्तरपगदिपदेसंबंधे सब्जियासं १८७ O 0. उक० ब ं० संखेअदिभागूणं ब ं० । समचदु० - हुंडसं ०-पसत्थ०-थिरादिपंचयुग० सुस्सर० सिया संखेजदिभागूणं बं० । चदुसंठा० छस्संघ ० - अप्पसत्थ० - दुस्सर० सिया० उक० । ओरा० अंगो०- मणुसाणु० - [ तस० ] णि० ब० णि० उक्क० । एवं मणुसाणु० । देवगदि ० १० उक० पदे०ब० पंचिंदि० - समचदु० देवाणु ० - पसत्थ० -तस०- सुभग-सुस्सर-आदेंο णि० ब ० णि० उक्क० । वेउब्वि० - वेड व्वि० अंगो० णि० मं० णि० तं० तु० संखअदिभागूणं बं० | तेजा० क० वण्ण०४- अगु०४ - बादरतिण्णि०' - णिमि० णि० ब ० णि० संखेंञ्जदिभागूणं ब ं० । आहार० २ सिया० उक्क० । थिरादितिष्णियु० सिया संखेअदिभागूणं बं० । एवं पंचिंदि० समचदु० देवाणु० - पसत्थ०-तस०-सुभग-सुस्सर-आदें । वे उग्वि' ० - वेउन्वि ० अंगो० देवगदिभंगो । णवरि आहार०२ वञ्ज । आहार०२ देवगदिभंगो । वेउच्त्रि०-वे उब्वि ० अंगो० णि० बणि० संखेजदिभागूणं ब० । णग्गोध० पदे ० ब ० तिरिक्ख० - तिरिक्खाणु' ० पसत्थ०-थिरादिपंचयु० - सुस्सर० प्रदेशों का बन्ध करता है। समचतुरस्त्रसंस्थान, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि पाँच युगल और सुस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। चार संस्थान, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और त्रसका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवगतिके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर और आयका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है । fararरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर आदि तीन और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । आहारकशरीरद्विकका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशका बन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलों का कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे संख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। इसी प्रकार पचेन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, देवगस्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष देवगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए । आहारकद्विककी मुख्यतासे सन्निकर्ष देवगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियम से संख्यात भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यखगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि १. आ. प्रतौ 'अगु० बादर तिष्णि' इति पाठः । २. ता०प्रसौ एवं पंचि० । समय०' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ '"आदे० वेडन्वि०' इति पाठः । ४ आरप्रतौ 'पदे०कं० तिरिक्खाणु' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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