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________________ १८६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे कसा० । पच्चक्खाणकोध० उक० पदे०चं० तिणिकसा०- पुरिस०-भय-दु० णि० मं० णि० उक्क० । चदुसंज० णि० बं० णि० अणु० अनंतभागूणं बं० । चदुणोक० सिया० उक० । एवं तिष्णिक० । कोधसंज० उक० पदे०चं० तिण्णिसंज०पुरिस०-भय- दुगुं० णि० बं० णि० उक० । चदुणोक० सिया० उक० । एवं तिण्णिसंज० । पुरिस० उक्क० पदे०चं० अपचक्खाण ०४ - चदुणोक० सिया० उक्क० । पच्चक्खाण०४ सिया० तं तु ० अणंतभागूणं बं० । चदुसंज० णि० ब ० णि० तं० तु० अनंतभागूणं ब० । [ भय-दु० णि० नं० णि० उक्क० ] | एवं छष्णोक० । २८७. तिरिक्ख ० उक० पदे०ब० सोधम्म० एइंदियदंडओ आदि पणवीसदिणामाए सह ताओ सव्वाओ सण्णियासं णादव्वाओ । मणुसग० उक० पदे० बं० पंचिंदि० - ओरालि ० तेजा० क० वण्ण०४-अगु०४- बादर-पजत - पत्ते० - णिमि० णि० अनन्तवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। चार नोकषायोंका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानोवरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । प्रत्याख्यानावरण क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव प्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध करता है जो नियमसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है। चार संज्वलनकषायों का नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अनन्तवें भागदीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है । चार नोकषायोंका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियमसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है । इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । क्रोधसंज्वलनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव मान आदि तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है । चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है | यदि बन्ध करता है तो नियमसे इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । इसी प्रकार मान आदि तीन संज्वलनोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करनेवाला जीव अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और चार नोकषायोंका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो नियम से इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकरता है तो नियमसे अनन्तवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । चार संज्वलनकषायों का नियमसे बन्ध करता है जो इनके उत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है तो नियमसे अनन्तवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करता है । इसी प्रकार छह नोकषायों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये । २८७. तिर्यचगतिके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाले जीवके सौधर्मके एकेन्द्रियदण्डकमें कही गई नामकर्मकी पचीस प्रकृतियोंके साथ उन सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष करना चाहिए । मनुष्यगतिके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करनेवाला जीव पचेन्द्रियजाति, भौदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे संख्यातवें भागद्दीन अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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