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________________ महाबंधे पदेस बंधाहियारे भय-दु० णिय० बं० णिय० अणु० अर्णतभागूणं बंधदि । कोधसंज० णिय० बं० णिय० • अणु० दुभागूणं बंधदि । माणसंज० सादिरेयदिवडभागूणं बंधदि । मायासंज०लोभसंज० णिय० बं० णिय० अणु० संजगुणहीणं बंधदि । इत्थि० - वुंस० सिया उस्सं । पुरिस० सिया संखेजगुणहीणं बंधदि । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया अनंतभाणं बंदि । एवं अताणुर्व ० ४ - इत्थि ०-णवुंस० । २७३. अपच्चक्खाणकोध० उक्क० नं० तिष्णिक० -भय-दु० णिय० बं० णिय० उक्कस्सं । पच्चक्खाण०४ णि० बं० गिय० अणु० अनंतभागूणं बंधदि । चदुसंज० मिच्छत्तभंगो । पुरिस० णि० बं० णि० अणु० संखेजगुणहीणं बंधदि । चदुणोक० सिया बं० उक्क० । एवं तिष्णिकसा० । १८० नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है। आठ कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनन्तवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है । क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है। मान संज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियम से साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनन्तवें भाग हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । विशेषार्थ — तात्पर्य यह है कि मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी एक जीव है, इसलिए मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको मुख्य करके जो सन्निकर्ष कहा है, वह अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको मुख्य करके भी बन जाता है। शेष कथन बन्धव्यवस्थाको जानकर घटित कर लेना चाहिए । २७३. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायों, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनन्तवें भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है। चार संज्वलनका भङ्ग मिथ्यात्व के समान है । पुरुषवेदका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणे हीन अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । चार नोकषायों का वह कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियम से उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि तीन कषायों की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । विशेषार्थ – अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी एक जीव है, इसलिए इनका सन्निकर्ष एक समान कहा है । यहाँ पर जो चार संज्वलनोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान कहा है सो इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मिध्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध १. ता० प्रतौ 'माणसंज० लोभसंज० निय० [ बं० णि०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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