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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सष्णियासं १७९ थी गि० । णिद्दाए उक० [] पयला णियमा बं० णियमा उक्कस्सं । चदुदंस० णि० बं० णि० अणु० संखेज्जदिभागूणं बंधदि । एवं पयला । चक्खुदं० उक्क० बंधंतो अचक्खुर्द • ओधिदं० केवलदं० णियमा बं० णिय०' उक्कस्सं । एवं तिष्णिदंसणा० । २७१. सादा० उक्क० बंधंतो असादस्स अबंधगो । असादा० उक्क० बंधंतो सादस्स अबंधगो । एवं चदुष्णं आउगाणं दोष्णं गोदाणं च । 0 २७२. मिच्छ० उक्क० बं० अणंताणु० णिय० बं० णिय० उक्क० । अट्ठक० और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए । निद्राके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । चार दर्शनावरणों का नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवें भाग न्यून अनुत्कृष्ट प्रदेशों का बन्धक होता है। इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए । चक्षुदर्शनावरण के उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्धक होता है । इसी प्रकार तीन दर्शनावरणोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष होता है । विशेषार्थ- प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में दर्शनावरणकी सब प्रकृतियोंका बन्ध होता है; इसलिए निद्रानिद्राके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव बन्ध तो सबका करता है, पर निद्रानिद्रा के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जो स्वामी है वह मात्र प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ही उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का स्वामी है, इसलिए निद्रानिद्राके उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करनेवाला जीव इन दो प्रकृतियोंके हो उत्कृष्ट प्रदेशों का बन्ध करता है । शेषका अपने-अपने उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको देखते हुए अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका ही बन्धक होता है । तृतीयादि गुणस्थानोंमें निद्रादिक और चक्षुदर्शनावरण चतुष्कका बन्धक होता है । उसमें भी निद्राद्विकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का स्वामी चार गतिका सम्यग्दृष्टि जीव है और चक्षुदर्शनावरण आदिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिक जीव है, इसलिए निद्राद्विकमेंसे किसी एकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होते समय अन्यतरका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है और चक्षुदर्शनावरणचतुष्कका अपने उत्कृष्टको देखते हुए नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। मात्र इसके स्त्यानगृद्धित्रिकका बन्ध नहीं होता । तथा चक्षुदर्शनावरण आदिमेंसे सूक्ष्मसाम्परायमें किसी एकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होते समय शेष तीनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । मात्र इसके निद्रादिक पाँचका बन्ध नहीं होता ।. २७१. सातावेदनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव असातावेदनीयका अबन्धक होता है और असातावेदनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव सातावेदनीयका अबन्धक होता है। इसी प्रकार चार आयु और दो गोत्रोंके विषय में भी जानना चाहिए । विशेषार्थ — दोनों वेदनीय, चारों आयु और दोनों गोत्रकर्म प्रत्येक परस्पर सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं। दोनों वेदनीयमेंसे किसी एकका बन्ध होनेपर अन्यका बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार चारों आयुकमों और दोनों गोत्रकर्मों के विषय में जानना चाहिए, इसलिए यहाँ पर इनके सन्निकर्षका निषेध किया है । २७२. मिध्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशोंका बन्ध करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्कका १. ता० प्रतौ 'णिय ० [ बं० ] णि०' Jain Education International इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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