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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे कालो १३७ २२६. रइएस पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक० -भय-दु० - तिरिक्ख० - पंचिं ०ओरा ० - तेजा ०० - क ० - ओरा ० अंगो० - वष्ण०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४-तस०४ - णिमि०णीचा० - पंचत० उ० ज० ए०, उ० वेसम० । अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० । दोवेदणी ० - इत्थि० - स ० - हस्स - रदि- अरदि - सोग - दोआउ०- पंचसंठा०-पंच संघ० - उजो०अप्पसत्थवि०-थिरादितिष्णियु० - दूभग- दुस्सर- अणादें० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । जीवोंमें निरन्तर बन्ध होता है और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। सर्वार्थसिद्धिमें मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता है और सर्वार्थसिद्धिमें आयु तेतीससागर है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । सम्यग्दृष्टि मनुष्यके देवगतिचतुष्कका ही बन्ध होता है । किन्तु इसके मनुष्यायुका बन्ध सम्यक्त्व अवस्थामें नहीं होता, इसलिए पूर्वकोटिकी आयुवाले किसी मनुष्य के प्रथम त्रिभाग में मनुष्यायुका बन्ध कराकर वेदकपूर्वक क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न करावे और आयुके अन्त में मरण कराकर तीन पल्यकी आयुवाले मनुष्यों में ले जावे। इस प्रकार करानेसे अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य काल प्राप्त होता है । यतः इतने काल तक इसके निरन्तर देवगतिचतुष्कका बन्ध होगा, अतः देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त कालप्रमाण कहा है। एकसौ पचासी सागर काल तक पचेन्द्रिय जाति आदिका निरन्तर बन्ध होता है, इसका पहले हम अनेक बार निर्देश कर आये हैं; इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त कालप्रमाण कहा है। पुरुषवेदके समान सम्यग्दृष्टिके समचतुरस्र संस्थान आदि प्रकृतियोंका भी निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल भी दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण तो कहा ही है। साथ ही भोगभूमिमें पर्याप्त होने पर निरन्तर इन्हीं प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए उक्त कालमें कुछ कम तीन पल्यप्रमाण काल और जोड़ा है। नरकमें औदारिक आङ्गोपाङ्गका निरन्तर बन्ध तो होता ही है। साथ ही ऐसा जीव वहाँसे निकलनेके बाद भी अन्तर्मुहूर्त काल तक इसका बन्ध करता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर कहा है। कोई एक मनुष्य है जिसने आठ वर्षका होनेके बाद तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध प्रारम्भ किया। उसके बाद इतना समय कम एक पूर्वकोटि कालतक वह यहाँ उसका बन्ध करता रहा। इसके बाद मरा और तेतीस सागरकी आयुवाला देव हो गया। फिर वहाँसे आकर पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य हुआ । फिर वर्णपृथक्त्व काल शेष रहने पर क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर केवलज्ञानी हो गया। इस प्रकार 'वर्षपृथक्त्व कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर काल तक निरन्तर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है, इस लिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ प्रारम्भके अबन्धके आठ वर्ष और अन्त भबन्धका वर्षपृथक्त्व इन दोनोंको मिलाकर वर्षपृथक्त्व काल कम किया गया है । २२६. नारकियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । दो वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, दो आयु, पाँच संस्थान, १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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