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________________ १३६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है, अतः यहाँ पाँच ज्ञानावरणादि सभी १२० प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी अपेक्षा विचार करनेपर प्रथम दण्डकमें कही गई ज्ञानावरणादि तीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध यथासम्भव गुणप्रतिपन्न जीवके होता है, इसलिये जो अभव्य हैं उनके सदा काल इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता रहता है, क्योंकि ये ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं । भव्योंमें अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके दो विकल्प बनते हैं-अनादि-सान्त और सादिसान्त । अनादि-सान्त विकल्प उन भव्य जीवोंके होता है जो इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध किये बिना या अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्ति होते समय उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करके ही मुक्तिके पात्र हो जाते हैं और । सादि-सान्त विकल्प उन भव्य जीवोंके होता है जो अपनेअपने उत्कृष्ट स्वामित्वके योग्य पूरी सामग्रीके मिलनेपर उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करके पुनः अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करने लगते हैं। इनमेंसे यहाँ अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके सादि-सान्त विकल्पके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विचार किया है। यह तो हम पहले ही लिख आये है कि इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध गुणप्रतिपन्न जीवके होता है, इसलिए अपने-अपने उत्कृष्ट स्वामित्वके योग्य स्थानमें इनका एक समयके अन्तरालसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कराके मध्यमें एक समयके लिए अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करावे। इस प्रकार बन्ध कराने पर इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। तथा अर्धपुद्गलके प्रारम्भमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कराकर बादमें कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करानेपर इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त हो जाता है। यही कारण है कि यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्बन्धी सादि-सान्त विकल्पका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धित्रिक आदि द्वितीय दण्डकमें कही गई प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं । यद्यपि इनमें औदारिकशरीर प्रकृति भी सम्मलित है,पर एकेन्द्रियोंमें इसकी प्रतिपक्ष प्रकृति वैक्रियिकशरीरका बन्ध न होनेसे यह भी ध्रुवबन्धिनी है; इसलिए पाँच ज्ञानावरणादिके समान इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भी जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल कहा है। ज्ञानावरणादिके साथ इन प्रकृतियोंका कुल काल इसलिए नहीं कहा है, क्योंकि इन स्त्यानगृद्धि तीन आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्या दृष्टि जीव करता है. इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके कालके ज्ञानावरणादिके समान अनादि-अनन्त आदि तीन विकल्प न होकर केवल एक सादि-सान्त विकल्प ही सम्भव है। सातावेदनीय आदिका जघन्य बन्ध काल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसके कई कारण हैं । एक तो सातावेदनीय आदि अधिकतर सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है, इसलिए इनका जघन्य और उत्कृष्ट उक्त काल बन जाता है। दूसरे चार आयु, आहारकद्विक और आतपद्विक सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ नहीं भी हैं। तब भी ये अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं बँधतीं और एक समयके अन्तरसे इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तृतीय आदि यथासम्भव गुणस्थानोंमें पुरुषवेदका ही बन्ध होता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है। इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय स्पष्ट ही है, क्योंकि एक समयके अन्तरसे इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध हो और मध्यमें एक समयके लिए अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध हो यह सम्भव है और यह सप्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे एक समयके लिए इसका बन्ध होकर दूसरे समयमें स्त्रीवेद या नपुंसकवेदका बन्ध होने लगे यह भी सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। आगे अन्य प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय उक्त दो हेतुओंको ध्यानमें रख कर जहाँ जो सम्भव हो उसके अनुसार घटित कर लेना चाहिए, इसलिए आगे उसका हम पुनःपुनः निर्देश नहीं करेंगे। तिर्यश्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका अग्निकायिक और वायुकायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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