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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सामित्तं १२५ रह० मिच्छा० घोल० अट्ठविध० जजो०। मणुसाउ० ज० ५० क.? अण्ण. देव० णेरइ० सम्मा० मिच्छा० घोल० अट्ठविध० ज०जो० । तिरिक्ख०-पंचसंठा०पंचसंघ०-तिरिक्खाणु०-उजो०-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादें ज०५० क० १ अण्ण. देव० णेरइ० मिच्छा० पढम०सरीरपज० पञ्जत्त० तीसदि० सह सत्तविध० ज०जो० । मणुस०-मणुसाणु०-तित्थ ज० प० क० ? अण्ण० देव० शेरइ० सम्मा० पढमस० सरीरपज्जत्तीहि पज० तीसदि० सह सत्तविध० ज०जो० । एइंदिय-आदाव-थावर० ज० प० क० ? अण्ण० देव० मिच्छा० पढमस० सरीरपज० छब्बीसदि० सह सत्तविध० ज०जो० । पंचिं०-तिण्णिसरीर-समचदु०-ओरा० अंगो०-वजरि०-वण्ण०४-अगु०४पसत्थ०-'तस०४-थिरादितिण्णियुग०-सुभग-सुस्सर-आर्दै०-णिमि० ज० प० क० ? अण्ण० देव० णेरइ० सम्मा० मिच्छा० पढमस० सरीरपज० तीसदि० सह सत्तविध० ज०जो० । एवं वेउ०मि० पढमसमयतब्भवत्थ० । २१०. आहारका० पंचणा०-छदंसणा०दंडओ देवाउ० ज० प० क० १ अण्ण करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि घोलमान देव और नारकी तिर्यञ्चायके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। मनुष्यायके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव व नारकी घोलमान जीव उक्त आयुके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तियञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगांत, दुभंग, दुःस्वर और अनादेयके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ, नामकर्मकी तीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव और नारकी उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्करप्रकृतिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ, नामकमेकी तीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकार कर्मोका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर सम्यग्दृष्टि देव और नारकी उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ, नामकर्मकी छब्बीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका वन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुआ नामकर्मकी तीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव व नारको उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए जीवके कहना चाहिए। २१०. आहारककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण और छह दर्शनावरणदण्डक तथा घन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला, जघन्य १. आप्रतौ वण १ पसस्थः इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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