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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सामित्तं १०७ अब्भव०-मिच्छा० । विभंग० मदि०भंगो । णवरि सण्णि त्ति ण भाणिदव्बं । १८८. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०-चदुदंसणा०दंडओ ओघं । णिद्दा-पयलाअसाद०-छण्णोक० उ०प० क० ? अण्ण० चदुगदि० सम्मा० सव्वाहि० सत्तविध० उ०जो० । अपचक्खा०४-पच्चक्खा०४-चदुसंजल-पुरिस० ओघभंगो। मणुसाउ० उ० प० क.? अण्ण० देव० करइ. अद्वविध० उ०जो० । देवाउ० उ० प० क.? अण्ण. तिरिक्ख० मणुस. अहविध० उ०जो० । मणुसगदिपंचगस्स उ० प० क० १ अण्ण० देव० णेरइ० एगुणतीसदि० सह सत्तविध० उ०जो० । देवगदि-पंचिं०-वेउव्वि०-तेजा०क०-समचदु०-वेउ अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अणु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिरादितिण्णियु० सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि० उ० प० क० ? अण्ण० तिरिक्ख० मणुस० अहावीसदि० सह सत्तविध० उ०जो० । णवरि जस० ओघं । आहार०२-तित्थ० ओघं । एवं ओधिदं०-सम्मा०-खड्ग-उवसम० । मणपन्जा-संज०-सामा०-छेदो०-परिहार०संजदासंज० ओधिभंगो । णवरि अप्पप्पणो पगदीओ णादव्वाओ । सुहुमसंप० ओघं । जीवोंमें जानना चाहिये । तथा विभङ्गज्ञानी जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनके स्वामित्वका कथन करते समय संज्ञो ऐसा नहीं कहना चाहिए । १८८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरणदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ, सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर चार गतिका सम्यग्दृष्टि जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क, चार संज्वलन और पुरुषवेदका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर देव और नारकी मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतरतिर्यश्च और मनुष्य देवायुके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर देव और नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है । देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध । स्वामी कौन है? नामकमकी अट्ठाईस प्रकृतियों के साथ सात प्रकारके कोका बन्ध करने पाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका भङ्ग ओघके समान है। आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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