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________________ सादि-अणादि-धुव-अद्भुवबंधपरूवणा बंधो अणुक्कस्सबंधो । ] सउक्कस्सयं पदेसग्गं बंधमाणस्स उकस्सबंधो । तदणं बंधमाणस्स अणुक्कस्सबंधो। णिरएसु सव्वपगदीणं किं जह० अजह० ? अजहण्णबंधो। णवरि तित्थ० ज० अज० । एवं याव- अणाहारग त्ति णेदव्वं एदाणि अणियोगद्दाराणि । सादि-अणादि-धुव-अवबंधपरूवणा १७१. यो सो सादि० अणादि० धुवबं०' अद्धव० णाम तस्स दुवि०ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-छदंस०-बारसक०-भय-दु०-पंचंत० उ० जह० अजह. प०० किं सादि०४ ? सादि० अद्धव० । अणु० किं सादि०४ ? सादि० अणादि० धुव० अद्धवबंधो वा । सेसाणं पगदीणं उक्क० अणु० जह० अज़ह० किं सादि०४? सादि० अद्धवः । एवं अचक्खु०-भवसि० । णवरि भवसि० धुव० णत्थि । सेसाणं णिरयादि याव अणाहारग त्ति सव्वपगदीणं सादि० अद्भुवबंधो। और अनुत्कृष्टबन्ध होता है। अपने उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका बन्ध करनेवालेके उत्कृष्टबन्ध होता है। उससे न्यूनका बन्ध करनेवालेके अनुत्कृष्टबन्ध होता है। नारकियोंमें सब प्रकृतियोंका क्या जघन्यबन्ध होता है या अजघन्यबन्ध होता है ? अजघन्य बन्ध होता है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य बन्ध होता है और अजघन्यबन्ध होता है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक ये अनुयोगद्वार ले जाने चाहिए । सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवप्रदेशबन्धप्ररूपणा १७१. जो सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्ध है उसका निर्देश दो प्रकारका है-भोघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध क्या सादि, अनादि, ध्रुव या अध्रव है? सादि और अध्रव है। अनुत्कृष्ट प्रदंशबन्ध क्या सादि, अनादि, ध्रुव या अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रव है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजन्य प्रदेशबन्ध क्या सादि, अनादि, ध्रुव या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भव्य जीवों में ध्रुवभङ्ग नहीं है। नारकियांसे लेकर अनाहारक तक शष मागेणाओंमें सब प्रकृतियोंका सादि और अध्रुवबन्ध है। विशेषार्थ-मूलमें कही गई ध्रुवबन्धिनी पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध गुणप्रतिपन्न जीवोंके होता है। उससे पहले उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए तो इन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनादि है और इन प्रकृतियोंका उत्कृष्टके बाद पुनः अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि है। तथा ज्योंकी अपेक्षा वह अध्रव है और अभव्यांकी अपेक्षा ध्रव है। इस प्रकार पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके साद आदि चारों विकल्प बन जाते हैं। किन्तु इनके उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यबन्ध के ये चारों विकल्प न होकर केवल सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प होते हैं, क्योंकि ये तीनों प्रकारके बन्ध कादाचित्क होते हैं । इनके सिवा अन्य जितनी प्रकृतियाँ हैं उनके उत्कृष्ट आदि चारों पद कादाचित्क होनेसे उनमें सादि और अध्रुव ये दो हो विकल्प बनते हैं। यह ओध प्ररूपणा है जो अचक्षुदर्शनी और भव्यमार्गणामें सम्भव है, इसलिये इन दो मार्गणाओंमें ओघके समान उक्त प्ररूपणा जाननेकी सूचना की १. ता-श्रा०प्रत्योः सादि-अणु०-धुवबं० इति पाठः । २. ता०प्रतौ सादि० ४ अव० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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