SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवसमुदाहारे अप्पाबहुअं तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालि०-ओरा०मि०-कम्मइ०-णस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०असंज०-अचक्खु ०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार'०अणाहारग त्ति । १६०. णेरइएसु सत्तणं क० सव्वत्थो० जह०पदे० जीवा । उक्क०पदे० जीवा असं०गु० । अजहण्णमणु०पदे० जीवा असं०गु० । आउ• सव्वत्थो० उक्क०पदे० जीवा । जह०पदे० जीवा असं०गु० । अजहण्णमणु०पदे० जीवा असं०गु० । एवं सव्वणिरयाणं देवाणं याव सहस्सार त्ति । आणद याव अवसइदा ति तं चेव । णवरि आउ० सव्वत्थो० उक्क० पदे० जीवा । जह०पदे० जीवा संखेंगु० । अजहण्णमणु०पदे० जीवा संखेंजगु० । १६१. मणुसेसु ओघं । णवरि असंखेंजगुणं कादव्वं । एवं एइंदि०-विगलिंदि०पंचिं०-तस०२-पंचका०-इत्थि-पुरिस०-सण्णि त्ति । एवं पंचिंतिरि०३ । मणुसपञ्जत्तमणुसिणीसु सत्तण्णं क० ओघं । णवरि संखेंजगुणं कादव्वं । मोहणी० सव्वत्थो० जह०पदे० जीवा । उक्क० पदे० जीवा संखेंगु० । अजहण्णमणु०पदे० जीवा संखें गु० । १६२. सव्वअपजत्त० तसाणं थावराणं च णिरयभंगो। [ सव्वसिद्धि० ] जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार ओघके अनुसार सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। १६०. नारकियोंमें सात कोके जघन्य प्रदेशों के बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आयुकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य देव और सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। आनत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें वही भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें आयुकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। १६१. मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशषता है कि असंख्यातगुणा कहना चाहिए । इसी प्रकार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच स्थावरकायिक, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और संज्ञी जीवों में जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार पञ्चन्द्रियतिर्यश्चत्रिक ना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सात कर्मो का भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा कहना चाहिए । मोहनीय कर्मके जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । १६२. त्रस और स्थावर आदि सब अपर्याप्तकोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। १. ता०प्रती असणि त्ति आहार इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy