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________________ अन्तरपरूव जह० एग०, उक्क० चत्तारिसमयं । गोद० जह० - अज० णत्थि अंतरं । 1 १६६. सम्मामि० वेद०० णामा० सासण० भंगो। सेसाणं जह० अज० णत्थि अंतरं । १७०. सण्णी० पंचिंदियपत्तभंगो | असण्णी० घादि ०४ - गोद० जह० जह० एग०, उक्क० अणंतकालं० | अज० जह० एग०, उ० बेसम० । वेद० आउ०- णामा० जह० ओघं । अज० जह० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । णवरि आउ० अज० जह० एग०, उक्क० कोडी सादि० । ७३ भागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । गोत्रकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है । विशेषार्थ - सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें चार घातिकमका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिसर्वविशुद्ध परिणामोंसे होता है । यतः ये परिणाम कमसे कम एक समय के अन्तरसे और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे उपलब्ध होते हैं, इसलिए यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । इनके अजघन्य अनु भागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है, यह स्पष्ट ही है । वेदनीय और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतियों में मध्यम परिणामों से और आयुकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है । यतः ये परिणाम भी कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे होते हैं, इसलिए यहाँ इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है। १६६. सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें वेदनीय और नामकर्मका भंग सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान है । शेष कर्मोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके चार घातिकमका जघन्य अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध सम्यक्त्व अभिमुख हुए जीवके तथा गोत्र कर्मका जघन्य अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश वाले मिथ्यात्व अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । वेदनीय और नामकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होनेके कारण इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर काल सासादन सम्यग्दृष्टि के समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है। Jain Education International १७०. संज्ञी जीवोंमें पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान भंग है । श्रसंज्ञी जीवोंमें चार घातिकर्म और गोत्र कर्मके जघन्य अनुभाग बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल श्रोध के समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है । इतनी विशेषता है कि आयुकर्मके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है । विशेषार्थ - असंज्ञियों में चार घातिकर्म और गोत्र कर्मके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तर एकेन्द्रियोंकी मुख्यतासे कहा है, इसलिये इन कर्मो के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल बन जाता है। इसी प्रकार अन्य कर्मोंका अन्तर भी अपने-अपने स्वामित्वको ध्यान में लेकर घटित कर लेना चाहिए। मात्र आयुकर्म के अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर लाते समय वह साधिक एक पूर्वकोटि प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि असंज्ञी पचेन्द्रियकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटिकी अपेक्षा ही यह अन्तर प्राप्त हो सकता है, अन्य प्रकारसे नहीं । १० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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