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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १७१. आहार० घादि०४ जह० अज० ओघं । वेद-आउ०-णामा० जह० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखें । अज० ओघं । गोद० जह० अंतो, उक्क० अंगुलस्स असंखें । अज. ओघं । एवं अंतरं समत्तं । १५ सण्णियासपरूवणा १७२. सण्णियासं दुविधं-जह० उक्क० । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० णाणावरणीयस्स उक्कस्सयं अणुभागं बंधतो दंसणा० मोहणी०- अंतरा० णियमा बंधगा । तं तु छट्ठाणपदिदं बंधदि । वेद०-णामा-गोदा०णियमा अणुक्क० अणंतगुणहीणं बंधदि । आउ० अबंधगो। एवं दसणा०-मोह०-अंतरा० । वेद० उक्क० अणुभागं बं० तिण्णिधादीणं णिय० बं० । णि० अणु० अणंतगुणहीणं बंधदि । मोह०आउगस्स अबंधगो। णामा-गोदा० णिय० बं० णि० उक्कस्सं । एवं णामा-गोदा० । आउगस्स उक्कस्सं बं० सत्तण्णं क० णिय० ब० णिय० अणु० अणंतगुणहीणं बंधदि । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियका०-तिण्णिवेद०-कोधादि०४-आभि० सुद०-ओधि० - मणपज्ज० संजद०-चक्खुदं० - १७१. आहारक जीवोंमें चार घाति कर्मोके जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। गोत्र कर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागवन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। विशेषार्थ-आहारककी उत्कृष्ट कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीसे यहाँ वेदनीय, आयु नाम और गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिका बन्ध कराकर यह अन्तर ले आवे । शेष कथन सुगम है। इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। १५ सन्निकर्षप्ररूपणा १७२. सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह छह स्थान पतित बाँधता है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह अनुत्कृष्ट अनन्तगुरणेहीन अनुभागका बन्ध करता है। वह आयुकमका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायकर्मकी अपेक्षा सन्निकष जानना चाहिये । वेदनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन घातिकर्मोंका नियमसे बन्ध करता है । जो नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणेहीन अनुभागका बन्ध करता है, वह मोहनीय और आयुकर्मका बन्ध नहीं करता। नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है, जो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका बंध करता है । इसीप्रकार नाम और गोत्रकर्मकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये । आयुकम के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सात कर्मोंका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणे हीन अनुभागका बन्ध करता है। इसीप्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, द्विक, सद्विक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीन वेदवाले, क्रोधायि चार कपायवाले, आभि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001391
Book TitleMahabandho Part 4
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages454
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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